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________________ निरुक्त कोश २६५ १५६६. समण (समनस्) सम्यक् मणे समणे। (सूचू १ पृ ६०) जिसका मन सम्यक् है, वह समना/श्रमण है। समान--स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो येषां ते समनसः । (स्थाटी प २७२) स्वजन और परजन में जिनका मन समान होता है, वे समना/श्रमण हैं । सह शोभनेन मनस वर्तत इति समनाः। (भटी प ७) जिसके श्रेष्ठ मन है, वह समना/श्रमण है। १५६७. समण (शमन) शम्यन्ते उपशमं नीयन्ते रोगा यस्तानि शमनानि । (व्यभा २ टी प ८६) जिनके द्वारा रोग शमित/उपशांत होते हैं, वे शमन औषधियां हैं। १५६८. समणोवासग (श्रमणोपासक) विशिष्टोपदेशार्थं श्रमणानुपासते-सेवन्त इति श्रमणोपासकाः। (सूटी २ प ७६) जो विशिष्ट उपदेश के लिए श्रमणों की उपासना करते हैं, वे श्रमणोपासक श्रावक हैं । १५६६. समभिरूढ (समभिरूढ) सम्–एकोभावेन अभिरोहति-व्युत्पत्तिनिमित्तमास्कन्दति शब्दप्रवृत्तौ यः स समभिरूढः। _ (आवमटी प ३७६) ___व्युत्पत्ति के अनुसार जो शब्द प्रवृत्त होता है, वह समभिरूढ (नय) है। १५७०. समयण्णु (समयज्ञ) स्वसमयपरसमयौ जानातीति स्वसमयपरसमयज्ञः । (आटी प १३१) जो समय/सिद्धांत को जानता है, वह समयज्ञ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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