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________________ २६४ निरुक्त कोश १५६१. सबल (शबल) शबलयन्ति-कर्बुरीकुर्वन्त्यतीचारकलुषीकरणतश्चारित्रमिति शबलाः । (उशाटी प ६१५) जो चारित्र को शबल/धब्बों युक्त कर देते हैं, वे शबल (दोष) हैं। १५६२. सब्भ (सभ्य) सभाया योग्यं सभ्यम् । (बृटी पृ २३४) जो सभा के योग्य है, वह सभ्य है। १५६३. सब्भाव (सद्भाव) स्वे भावे ठितो सब्भावो। जो अपने भाव में स्थित है, वह सद्भाव है । स सोभणो वा भावो सब्भावो । अच्छा भाव सद्भाव है। स विज्जमाणो वा भावो सब्भावो। (नंचू पृ ११) जो विद्यमान है, वह सद्भाव है। १५६४. समण (श्रमण) श्राम्यतीति श्रमणः। (आटी प ४०२) __ जो श्रम/तपस्या करते हैं, वे श्रमण हैं । १५६५. समण (समण) समिति-समतया शत्रुमित्रादिष्वणन्ति-प्रवर्त्तन्त इति समणाः । (स्थाटी प २७२) जो समता का आचरण करते हैं, वे समण/श्रमण हैं । संगतं वा यथाभवत्येवमणति-भाषते समणः। (भटी प ७) जिसकी कथनी-करणी समान है, वह समण/श्रमण है । १. श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः । (व्यभा ४/२ टी प २७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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