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________________ 'निरक्त कोश २८७ जिनकी प्रत्येक इन्द्रिय शब्द आदि सभी विषयों में व्याप्त होती है, वे संभिन्नश्रोता हैं। सामस्त्येन वा भिन्नान्-परस्परभेदेन शब्दान् शृण्वन्तीति संभिन्नश्रोतारः। (प्रटी प १०४) जो सम्मिलित शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप में सुनते हैं, वे संभिन्नश्रोता हैं। १५२३. संभूत (सम्भूत) सम्मं भवति संभूतं । जो अच्छे प्रकार से होता है, वह संभूत है। संभितं वा संभूतं । (आचू पृ ६८) जो पुष्ट और संस्कारित होता है, वह संभूत है। १५२४. संभोग (सम्भोग) सम्-एकत्र भोगो-भोजनं सम्भोगः। (स्थाटी प १३३) एक मंडली में भोजन करना संभोग है। समिति-संकरेण स्वपरलाभमीलनात्मकेन भोगः संभोगः। (उशाटी प ५८७) स्व और पर लाभ का सम्मिलित भोग/सेवन संभोग है। १५२५. संमोह (सम्मोह) सम्मुह्यतीति सम्मोहः । (स्थाटी प २६५) जो संमूढ बनाता है, वह सम्मोह है। १५२६. संयत (संयत) संगच्छति स्म सम्यगुपरमति स्म यावज्जीवं सर्वसावधयोगादिति संयतः। (प्राक २ टी पृ ३) जो जीवनभर के लिए सर्वसावद्ययोग से उपरमण करता है, वह संयत/संयमी है। १. एकमण्डलीकभोक्तृत्वम् । (उशाटी प ५८७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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