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________________ २८८ निरुक्त कोश १५२७. संलेहणा (संलेखना) संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीनि संलेखना।' (आवहाटी २ पृ २३३) संलिख्यते-कृशीक्रियतेऽनयेति संलेखना। (भटी प १२७) शरीर और कषाय जिसके द्वारा कुरेदे जाते हैं, कृश किये जाते हैं, वह संलेखना है। १५२८. संवच्छर (संवत्सर) संवसन्ति तस्मिन्निति संवत्सरः। (सूचू २ पृ ४४४) (समस्त ऋतुएं) जिसमें सम्यक रूप से अवस्थान वर्तन करती हैं, वह संवत्सर है। १५२६. संवट्ट (संवर्त) संवर्तन्ते-पिण्डीभवन्त्यस्मिन् भयत्रस्ता जना इति संवतः। (उशाटी प ६०५) जहां भयभीत लोग एकत्र होते हैं, वह संवर्त है । १५३०. संवट्टग (संवर्तक) संवर्तयति-नाशयतीति संवर्तकः। (नंटि पृ १०३) जो भरतक्षेत्र की पृथ्वी के संपूर्ण दोषों का अपने प्रशस्त जल से संवर्तन/नाश करता है, वह संवर्तक (मेघ) है । १५३१. संवर (संवर) संवियते-कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः। (स्थाटी प १७) संवियते-निरुध्यते आत्मतडागे कर्मजलं प्रविशदेभिरिति संवराः । (प्रटी प २) जो कर्म-प्रवेश का संवरण/निरोध करते हैं, वे संवर/व्रत, अप्रमाद आदि हैं। १. अनशन से पूर्व की जाने वाली तपस्या । २. संवसन्ति ऋतवोऽत्र संवत्सरः। (वा पृ ५१७६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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