SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ निरुक्त कोश १५१७. संबाह (सम्बाध) समिति-भृशं बाध्यन्तेऽस्मिन् जना इति संबाधः । (उशाटी प ६०५) जहां लोगों की अत्यन्त संकुलता है, वह संबाध/भीड़ है। १५१८. संभम (संभ्रम) संभ्रमति तस्मिन्निति संभ्रमः। (सूचू १ पृ.६६) जिसमें व्यक्ति संभ्रमित आकुल-व्याकुल होते हैं, वह संभ्रम १५१६. संभरण (सम्भरण) सम्भ्रियते धार्यते सम्भरणम् । (प्रटी प ६३) जो धारण किया जाता है, वह संभरण/परिग्रह है। १५२०. संभव (सम्भव) सदा भवनम् सम्भवः । (सूटी २ प ६५) जो सदो पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, वह सम्भव/वनस्पति विशेष है। १५२१. संभिन्न (संभिन्न) समस्तं भिन्नं सं एकीभावे वा सत्तामंगीकृत्यैक जीवाजीवादिभावेण भिन्नं संभिन्नं । दव्वपज्जायभावेण भिन्नं संभिन्नं । सम्यग्भिन्नं वा बज्झन्भंतरतो वा भिन्नं संभिन्नं । (आवचू १ पृ १०७) जो पूर्णरूप से अथवा भिन्न पृथक्-पृथक रूप से ज्ञात किया जाता है, वह संभिन्न है। १५२२. संभिन्नसोय (सम्भिन्नश्रोत) सम्भिन्न--सर्वतः सर्वशरीरावयवैः शृण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतारः। जो संपूर्ण शरीर से सुनते हैं, वे संभिन्नश्रोता विशेष लब्धिसंपन्न हैं। सं भिन्नानि-प्रत्येक ग्राहकत्वेन शब्दादिविषयः व्याप्तानि श्रोतांसि-इन्द्रियाणि येषां ते संभिन्नश्रोतसः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy