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________________ २७० निरक्त कोश १४३३. विवेक (विवेक) विविच्यतेऽनेनेति विवेकः। (आटी प २१७) __ जिसके द्वारा पृथक् किया जाता है, वह विवेक है । १४३४. विस (विष) विवेष्टि विष्णात्ति' वा विषम् । (उचू पृ १८५) जो शीघ्रता से व्याप्त होता है, वह विष है। जो विप्रयोग/शरीर और प्राणों का वियोग करता है, वह विष है। १४३५. विसन्न (विषण्ण) विविधं सन्ना विसन्ना। (उचू पृ १५३) जो विविध प्रकार से डूबे हुए हैं, वे विषण्ण हैं । १४३६. विसन्नेसि (विषण्णैषिन्) विसण्णो असंजमो तमेसति विसण्णेसी। (सूचू १ पृ ११३) जो विषण्ण असंयम को खोजता है, वह विषण्णैषी है। १४३७. विसय (विषय) विषीदन्त्येषु प्राणिन इति विषयाः। (दटी प २२) प्राणी जिनमें विषाद प्राप्त करते हैं, वे (इन्द्रिय) विषय विषीदन्ति-धर्म प्रति नोत्सहन्त एतेष्विति विषयाः। जो धर्म के प्रति विषाद/अनुत्साह पैदा करते हैं, वे विषय विषस्योपमा यान्तीति विषयाः। (उशाटी प १९०) ___ जो विष की उपमा को प्राप्त होते हैं, वे विषय हैं । १. विष्-व्याप्तौ, विप्रयोगे। २. 'विषय' का अन्य निरुक्तविषण्वन्ति विषयिणं स्वेन रूपेण निरूपणीयं कुर्वन्ति विषयाः । (शब्द ४ पृ ४४६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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