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________________ निरुक्त कोश २६६ १४२८. विवर (विवर) विगतवरणतया विवरम् । (भटी पृ १४३१) जिसका कोई आवरण नहीं है, वह विवर/आकाश है। १४२६. विवाग (विपाक) विविधो पाकः विपचनं वा विपाकः । (नंचू पृ ७०) जिसमें विविध प्रकार का पाक/कर्म-परिणाम दशित है, वह विपाक (आगम) है। १४३०. विवाग (विपाक) विविधो पागो विपागो। (आवचू २ पृ ८४) जिसका पाक/परिणमन विविध रूपों में होता है, वह विपाक है। १४३१. विवाह (व्याख्या) व्याख्यायन्ते जीवादयोऽर्था यस्यां सा व्याख्या। (नंटि पृ १६५) जिसमें (जीव आदि) पदार्थ व्याख्यायित होते हैं, वह व्याख्याप्रज्ञप्ति/भगवतीसूत्र है । १४३२. विवित्तेसि (विविक्तैषिन्) विविक्तान्येषतीति विवित्तेसी। जो विविक्त/एकान्त की एषणा करता है, वह विविक्तैषी विविक्तानां-साधूनां मार्गमेषयतीति विवित्तेसी । जो विविक्त/श्रामण्य की एषणा करता है, वह विविक्तैषी है। कर्मविवित्तो मोक्खो तमेवमेषयतीति विवित्तमेसी । (सूचू १ पृ १०३) जो विविक्त/मोक्ष की एषणा करता है, वह विविक्तैषी है । १. 'विवर' का अन्य निरुक्तविवृणोतीति विवरम् । (शब्द ४ पृ ४२७) जो सब को आच्छादित कर लेता है, वह विवर/आकाश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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