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________________ निरुक्त कोश રર૭ १२०३. मणुण्ण (मनोज्ञ) मणइटें तु मणुण्णं । (प्रसा १४०) मनसा-अन्तःसंवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनोज्ञः। (विपाटी प ६१) जो मनको सुन्दर प्रतीत होता है, वह मनोज्ञ है। १२०४. मणुय (मनुज) मनोर्जाता मनुजाः। (स्थाटी प २०) ___जो मनु से उत्पन्न हुआ है, वह मनुज/मनुष्य है । १२०५. मणोरम (मनोरम) मनांसि अत्र मनस्विनां रमंत इति मणोरमे। (सूचू १ पृ १४६) जहां मनस्वी व्यक्तियों का मन आनन्द का अनुभव करता है, वह मनोरम है। मनः चित्तं रमते-धृतिमाप्नोति यस्मिन् तन्मनोरमम् । (उशाटी प ३०६) जहां मन/चित्त रमण करता है, वह मनोरम है । १२०६. मणोहर (मनोहर) मणं हरन्तीति मणोहरणाई। (आचू पृ ३७८) ___ जो मन का हरण करते हैं, वे मनोहर हैं। १२०७. मत्ता (मात्रा) मीयतीति मत्ता। (आचू पृ ७२) जो भाप करती है, वह मात्रा है । १२०८. मत्तंगय (मत्ताङ्गद) मत्तं-- मदस्तस्याङ्ग- कारणं मदिरा तद्ददतीति मत्ताङ्गदाः। (स्थाटी प ४६४) जो मत्त होने की हेतुभूत मदिरा प्रदान करते हैं, वे मत्ताङ्गद (वृक्ष) हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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