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________________ २२६ निरुक्त कोश ११९८. मणसमाहारणा (मनःसमाधारणा) मनसः समिति-सम्यग् आङिति-मर्यादयाऽऽगमाभिहितभावाभिव्याप्त्याऽवधारणा-व्यवस्थापनं मनःसमाधारणा।। (उशाटी प ५६२) मन का सम्यक् रूप से अवधारण व्यवस्थापन करना मनःसमाधारणा है। ११६६. मणाम (मनआप) मनःअमन्ति–गच्छन्ति यास्ताः मनपाः। (स्थाटी प ४४४) मनांसि आप्नुवंति आत्मवशतां नयन्तीति मनआपाः । (राटी पृ ८५) जो मन को आकृष्ट कर लेता है, वह मनआप/मनोज्ञ है। १२००. मणाम (दे) मन्नइ मणसा मणामं तं । (प्रसा १४०) जो मन को इष्ट है, वह मणाम/मनोज्ञ है। १२०१. मणि (मणि) मद्यते मन्यते वा तमलङ्कारमिति मणिः। (उचू पृ १५१) __जो अलंकार को विशिष्ट और सुशोभित करती है, वह मणि है। १२०२. मणुअ (मनुष्य) मनसि शेते मनुष्यः। (उचू पृ ६६) जो मनचिंतन में खोया रहता है, वह मनुष्य है । १. 'मणि' शब्द का अन्य निरुक्तमणति महार्घतां मणिः। (अचि पृ २३५) जो मूल्यवान् होती है, वह मणि है । (मण शब्दे) २. 'मनुष्य' का अन्य निरुक्तमनोरपत्यं मनुष्यः। जो मनु की सन्तान है, वह मनुष्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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