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________________ निरुक्त कोश १७६ मन को निश्चित आलम्बन पर संपूर्णरूप से टिका देना प्रणिधान है । ३३. पणिहि (प्रणिधि ) प्रणिधीयते प्रणिधिः । ( दजिचू पृ २७१ ) जिससे प्रणिधान / एकाग्रता होती है, वह प्रणिधि / समाधि है । ३४. पणीतत्थ (पणितार्थ ) पणीयो- परभवं जस्स जीवितत्थो सो पणीतत्थो । ( अचू पू १७४ ) जो अर्थ / धन के लिए जीवन की पणित / बाजी लगा देता है, वह पणितार्थ / चोर है । ε३५. पणीय ( प्रणीत ) प्रकरिसेण णीतं प्रणीतं । ( नंचू पृ ४६ ) जो प्रष्ट रूप में नीत / ग्रथित है, वह प्रणीत है । ३६. पीयरस (प्रणीत रस ) ह- लवण-संभारातीहि प्रकरिसेण सुरसत्तं णीतं पणीतरसं । जो प्रकृष्ट रूप से (घृत, लवण, मशाले स्वादिष्ट बनाया जाता है, वह प्रणीतरस (भोजन) है | ३७. पण्णग ( पण्यक ) पण्णंति तमिति पण्णगम् । ३८. पण्णत्त (प्रज्ञप्त ) Jain Education International ( सू २ पृ ४२५ ) जिसका सौदा किया जाता है, वह पण्य / विक्रेय वस्तु है । पहाणपण अवाप्तं पण्णत्तं । ( अचू पृ १६६ ) आदि के द्वारा ) पहाणपण्णातो अवाप्तं पण्णत्तं । जो विशेष प्रज्ञावान् से प्राप्त है, वह प्रज्ञप्त जो विशेष प्रज्ञा से प्राप्त है, वह प्रज्ञप्त है । For Private & Personal Use Only I www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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