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________________ १६० ८३३. दुव्विसोज्झ (दुर्विशोध्य ) दुःखेन विशोधयितुं - निर्मलतां नेतुं शक्यो दुर्विशोध्यः । कठिनाई से शुद्ध / निर्मल होता है, वह दुर्विशोध्य है । ८३४. दुसन्नप्प (दुःसंज्ञाप्य ) दुःखेन कृच्छेण संज्ञाप्यन्ते - प्रज्ञाप्यन्ते - बोध्यन्त दुःसंज्ञाप्याः । ८३६. दुहिल ( दुहिल) दुहसीलो दुहिलो | जो द्रोह करता है, वह दुहिल है । जिसको कठिनाई से समझाया जाता है, वह दुःसंज्ञाप्य है । ८३५. दुस्संबोध ( दुस्सम्बोध) दुःखेन सम्बोध्यते - धर्मचरणप्रतिपत्ति कार्यत इति दुस्सम्बोधः । ( आटी प ३५ ) कठिनाई से संबुद्ध होता है, वह दुस्संबोध है । ८३७. दुइज्ज (दु ) दोसु सिसिरगिम्हेसु रीतिज्जति दूइज्जति । वह इज्जण / गमन है । दोसु वा पाएसु रोइज्जति दूइज्जति । जो दो ऋतुओं / शिशिर और ग्रीष्म में आना-जाना होता है, दो पैरों से गमन करना / पैदल चलना ८३८. देव (देव) निरुक्त कोश दीवं आगासं तंमि आगासे जे वसंति ते देवा । जो दिव/ आकाश में रहते हैं, वे देव हैं । दीव्यन्तीति देवाः । जो दीप्त हैं, वे देव हैं । Jain Education International ( उशाटी प ५०२ ) इति ( स्थाटी प १६० ) For Private & Personal Use Only ( उच्च् पृ १६६ ) ( निचू ३ पृ १२१ ) दूइज्जण / गमन है । ( दजिचू पृ १५ ) (टीप २१ ) www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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