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________________ १५९ निरुक्त कोश ८२६. दुरहि (दुरभि) दौर्मुख्यकृद् दुरभिः । (अनुद्वाहाटी प ६०) जो मुख को दुर्/विकृत बना देती है, वह दुरभि/दुर्गंध है। ८२७. दुरारुह (दुरारोह) दुःखेनारुह्यते-अध्यास्यत इति दुरारोहम्। (उशाटी प ५१०) जहां कठिनाई से आरोहण किया जाता है, वह दुरारोह है। ८२८. दुरासय (दुराश्रय) बुक्खमाश्रीयते दुरासतं । (दअचू पृ १५०) जिसे अपने आश्रित करना दुष्कर है, वह दुराश्रय/अग्नि ८२६. दुरुत्तर (दुरुत्तर) दुक्खं उत्तरिज्जति दुरुत्तरम् । (उचू पृ १३०) जो कठिनाई से पार किया जाता है, वह दुरुत्तर है । ८३०. दुरवणीय (दुरुपनीत) दुष्टमुपनीतं -निगमितं योजितमस्मिन्निति दुरुपनीतम् । (स्थाटी प २५०) जिसका निगमन/उपसंहार उचित रूप में उपनीत/योजित नहीं होता, वह दुरुपनीत है। ८३१. दुरूवभक्खि ('दुरूव' भक्षिन्) दुरूवं भक्खयन्तीति दुस्वभक्खी। (सूचू १ पृ १३१) जो दुम्व/मल-मूत्र का भक्षण करते हैं, वे दुरूवभक्षी/ नरयिक है। ८३२. दुल्लह (दुर्लभ) दुःखेन लभ्यत इति दुर्लभः । (उचू पृ ६८) जो कठिनाई से प्राप्त होता है, वह दुर्लभ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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