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________________ निरुक्त कोश १४५ ७४८. तिलोगदंसि (त्रिलोकदशिन्) त्रीन् लोकान् पश्यन्तीति त्रिलोकदर्शिनः। (सूचू १ पृ २३३) जो तीनों लोकों को देखते हैं, वे त्रिलोकदर्शी हैं । ७४६. तिव्व (त्रिप्र) त्रिभिस्तापयतीति त्रिप्रं। (सूचू १ पृ २५) जो (मन, वचन और शरीर) तीनों को तप्त करता है, वह त्रिप्र/कर्म है। ७५०. तीय (अतोत) अति-अतिशयेनेतो-गतोऽतीतः। (स्थाटी प १५२) जो सदा के लिए बीत जाता है, वह अतीत है। ७५१. तीर (तीर) तिष्ठति तमिति तोरं । (आचू पृ.६९) जहां ठहरा जाता है, वह तीर/तट है । तरंति तेणेति तीरम् । (उचू पृ २१५) जहां से तरा जाये, वह तीर है। ७५२. तीरट्टि (तीरार्थिन्) तीरं अत्थयति-मग्गतीति तीरही। (दअचू पृ २३४) तीरेण जस्स अट्ठो स भवति तोरट्ठी। (सूचू २ पृ ३३५) जो तीर तट पर जाना चाहता है, वह तीरार्थी है । तोरे ठितो तोरट्ठी। (दअचू पृ २३४) जो तीर/तट पर स्थित है, वह तीरार्थी है। ७५३. तुद (तुद) तुदंतीति तुदाः। (सूचू १ पृ १३५) जो व्यथित करते हैं, वे तुद/चाबुक हैं। .........-- १. 'तीर' का अन्य निरुक्ततीरयति समापयति नद्यादिकमिति तीरम् । (शब्द २ पृ६२५) नदी आदि को जहां तैर कर समाप्त किया जाता है, वह तीर है। जहां नदी आदि की सीमा समाप्त हो जाती है, वह तीर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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