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________________ १४४ निरुक्त कोश अहवा सम्मइंसणनाणचरित्ताइ तिन्नि जस्सत्था । तं तित्थं पुव्वोइयमिह अत्थो वत्थुपज्जाओ। __ (विभा १०३७) सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीन जिसके अर्थ प्रयोजन हैं, वह व्यर्थ तीर्थ है । ७४५. तित्थयर (तीर्थकर) ........ 'जे भावतित्थमेयं तु कुवंति पगासंति य ते तित्थयरा। (विभा १०४७) जेहिं एयं दंसणणाणादिसंजुत्तं तित्थं कयं ते तित्थकरा भवन्ति । जो दर्शन, ज्ञान और चारित्रमय तीर्थ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर हैं। तित्थं गणहरा, तं जेहिं कयं तं तित्थकरा। जो तीर्थ/गणधरों को तैयार करते हैं, वे तीर्थंकर हैं । तित्थं चाउवन्नो संघो, तं जेहिं कयं ते तित्थकरा । (आवचू १ पृ ८५) जो श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध तीर्थ धर्मसंघ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर हैं । ७४६. तिप्पणया (तेपनता) त्रीणि कायवाङ्मनोयोगान् तापयति तिप्पणया। (सूचू २ पृ ३६६) जो शरीर, वाग और मन को तप्त करती है, वह तेपनता/ पीड़ा है। ७४७. तिरिक्ख (तिर्यक्) तिरोऽञ्चन्तीति-गच्छन्तीति तिर्यञ्चः । (उशाटी प ६४३) जो तिरछी गति करते हैं, वे तिर्यंच हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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