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________________ जैन आगम वाद्य कोश २५ भीतर के घुमावदार भाग दिखने लगे, कभी-कभी परिवादिनी, सप्ततंत्री वीणा बन्द सिरे के पार्श्व में एक होद भी कर दिया विवरण-परिवादिनी वीणा का उल्लेख सर्वप्रथम जाता है. फिर छेद या काटे भाग में बांस या प्राचीनता की दष्टि से जैनागमों में अनेक स्थलों पीतल की नली लगा देते हैं, जिसके द्वारा फूंक। पर प्राप्त होता है। उसके बाद कालिदास एवं मारकर वादन करते हैं। संगीत मकरन्द में इस वीणा का नामोल्लेख हआ (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-वाद्य यंत्र) है। वाद्यप्रकाश ३० में “सप्तभिः तंत्रिभि (वीणा) दृश्यते परिवादिनी" कहकर परिवादिनी के सप्ततंत्री वीणा होने का संकेत किया है। राज. टी. पृ. ४०परिली (परिली) राज. ७७ ५० में भी परिवादिनी को सप्ततंत्री वीणा कहकर परिली, फिफली, फिरिली, फिलिली। उपरोक्त बात की पुष्टि की गई है। किन्तु किसी आकार-बांसुरी सदृश। भी ग्रंथ में इसके आकार-प्रकार का वर्णन नहीं विवरण-यह वाद्य लगभग १५ सेंटी. लम्बे बांस किया गया। से निर्मित होता है जिसका एक सिरा खुला और विमर्श-संगीत ग्रंथों में सात तार वाली वीणाओं के दूसरा बंद होता है। खुला सिरा निचले अधर पर अनेक नाम प्राप्त होते हैं, जैसे-चित्रा, सप्ततंत्री, धरा जाता है और इसको खडा पकडा जाता है परिवादिनी आदि। इनके विषय में विस्तृत तथा इस द्वार से फूंक मारी जाती है। स्पष्ट है कि जानकारी के अभाव में वर्णन करना संभव नहीं है इस यंत्र से बहुत ही सरल धुने बजायी जा सकती लेकिन भिन्न-भिन्न नामों के आधार पर इनके हैं। इससे थोड़ी जटिल फिफली में नल था बांस आकार-प्रकार की भिन्नता स्पष्ट परिलक्षित होती की अलग-अलग नाप की कई नलियों को आपस है। में बांधा जाता है और वह काफी कुछ एक छोटे बेडे जैसी लगने लगती है। भिन्न-भिन्न लम्बाई की पव्वग, पच्चग (पर्वक, प्रत्यक) जम्बू. ३/३१ नलियां होने के कारण उनके स्वर भी अलग पर्वक, मुखवीणा, छोटा नागसर। अलग विस्तार के होते हैं। छोटी बांसुरी की ध्वनि आकार-वेणु सदृश। अधिक तीखी होती है। हमारे देश में पायी जाने वाली फिफली यूरोप की पेनपाइप होती है। विवरण-मुखवीणा एक प्राचीन सुषिर वाद्य है। दक्षिण भारतीय साहित्य में इसका उल्लेख १२वीं आसाम के ल्होटा नागाओं में लगभग एक मीटर शताब्दी के ग्रंथों से प्रारंभ होता है। लम्बी बांस की पतली बांसुरी पायी जाती है, जिसे एक बालिश्त का नरसल लेकर उसे भूर्जपत्र में फिलिली, परिली के नाम से जाना जाता है। लपेट दिये जाने पर वह मुख वीणा कहलाता था। (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-दहिस्ट्री ऑफ इसमें मुख की वायु से ध्वनि उत्पन्न होती है। म्युजिकल इंस्ट्रमेंट्स) इसको छोटा नागसर और पर्वक भी कहते हैं। इसका प्रयोग नाटकों में होता था। परिवायणी (परिवादिनी) राज. ७७, जीवा. ३/ मुंह से बजाए जाने वाला वाद्य होने के कारण इसे ५८८, प्रश्नव्या. १०/१४ मुख वीणा कहा जाता है। आवश्यक चू. पृ. ३०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016097
Book TitleJain Agam Vadya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size5 MB
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