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________________ २४ जैन आगम वाद्य कोश सामान्य अंतर भी हो सकता है। प्रायः सभी मृदंग के बाद पणव को ही सबसे अधिक महत्त्व मांगलिक अवसरों पर इसका वादन किया जाता दिया। महर्षि भरत के अनुसार पणव का आकार इस प्रकार हैविमर्श-संगीत पारिजात में “पटह ढोलक इति सोलह अंगुल लम्बा. मध्य भाग भीतर की ओर भाषायाम्' कहकर ढोलक अर्थ किया है। संगीत दबा, जिसका विस्तार आठ अंगल तथा जिसके सार में भी प्राचीन पटह को मध्यकालीन ढोलक दोनों मुख पांच अंगुल के हों, वह पणव है। आधे का पर्याय माना है। अंगूठा के समान मोटा उसका काठ होता है और (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-संगीत रत्नाकर) भीतर का खोखला भाग चार अंगुल के व्यास का होता है। पणव के दोनों मुख कोमल चमड़े से मढ़े पणव (पणव) निसि. १७/१३७ जाते थे, जिन्हें सुतली से कस दिया जाता था। पणव वीणा, पल्लव वीणा सुतलियों का यह कसाव कुछ ढीला रखा जाता था आकार-गज से बजाए जाने वाली वीणा सदृश। जिसे वादन के समय बायें हाथ से मध्य भाग को विवरण यह एक अति प्राचीन तत वाद्य था, दबाकर तथा ढीला कर आवश्यकतानुसार ऊंचीजिसकी विभिन्न किस्में आज भी पूरे भारत में नीची ध्वनि निकाली जाती थी। प्राप्त होती हैं। इस वाद्य में स्वर पेटी प्रायः युग परिवर्तन के साथ-साथ वाद्यों की महत्ता में भी नारियल के खोल की अथवा लकड़ी की बनाई परिवर्तन आया. जिसके परिणाम स्वरूप पणव वाद्य जाती हैं जो वादक के कंधे के पास रहती है और आज कहार, अहीर और भांड जाति का ही वाद्य दंड नीचे भुजा की ओर बढ़ा होता है। गज हथेली बनकर रह गया। दक्षिण भारत में अब भी कहींसे नीचे की ओर पकड़ा जाता है तथा तार अंगुली कहीं मंदिरों में इसका प्रयोग देखने को मिलता है, के पोरों से पकड़े जाते हैं। किन्तु उत्तर भारतीय शिव मंदिरों में इसे बड़े केरल में इस वाद्य को पल्लव, बिहार, बंगाल के आकार का डमरु माना जाता है। आदिवासी क्षेत्रों में पणव, मणिपुर में पेना आदि (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-भरतनाट्य कहते हैं। शास्त्र) पणव (पणव) निसि. १७/१३७, दसा. १०/१७, परिपरि (परिपरि) निसि. १७/१३९ पज्जो. ६४,७५, राज. ७७, औप. ६७, प्रश्न परिपरि व्या. १०/१४ आकार-शंखाकृति। पणव, बड़े आकार का हुडुक। विवरण-प्राचीन परिपरि बांसुरी वाद्य अनेक बांस आकार-आधुनिक हुड़क के सदृश, किन्तु आकार- नलिकाओं से बनाई जाती थी, जो वादन के समय प्रकार में बड़ा। परिपरिया ध्वनि उत्पन्न करती थी। वर्तमान में इस विवरण-पणव एक अति प्राचीन अवनद्ध वाद्य था। प्रकार की शंखाकृति बांसुरी प्रायः लुप्त सी है। इसका उल्लेख जैनागमों, वेदों, पिटकों और संगीत किन्तु वर्तमान में शंखनुमा बंसी बनाने के लिए ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर हुआ है। महर्षि भरत ने शंख के बंद सिरे को काट दिया जाता है, जिससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016097
Book TitleJain Agam Vadya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size5 MB
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