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________________ ( 90 ) करण-जोग रूप क्रिया का भी एक भेद है। भाषा करण, मन करण-योग रूप क्रिया है। शरीर करण-काय करण का भी एक भेद बन सकता है। अतः काय योग रूप क्रिया का भी ग्रहण हो जाता है। साधकतमं करणं ( अभिधा० पृ० २८६) केवलिनोद्धनिरुद्धजोगस्स- केवलिनोऽर्धनिरोधयोगस्य । ----ठाण० स्था० ४ । उ १ । सू २४७ । टीका में उद्धृत निर्वाण के समय तेरहवें गुणस्थान में काययोग का अर्ध-निरोध होता है। निव्वाणगमणकाले केवलिनोद्धनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियट्टि तइयं तणुकायकिरियस्स ।। तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं ।। - ठाण० स्था० ४ । उ १ । सू २४७ । टीका में उद्धृत निर्वाण के समय केवली के मन और वचनयोगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्धनिरोध होता है। उस समय उनके शुक्लध्यान का तीसरा भेद 'सुहुमकिरिएअनियट्टी' होता है और सूक्ष्मकायिकी क्रिया उच्छ वासादि रूप में होती है । उस निर्वाणगामी जीव के शैलेत्व प्राप्त होने पर सम्पूर्ण योग निरोध होने पर भी शुक्लध्यान का चौथा भेद 'समुच्छिन्न-क्रियाऽप्रतिपाती' होता है, यद्यपि शैलेत्व की स्थिति मात्र पाँच ह्रस्व स्वराक्षर उच्चारण करने समय जितनी होती है । योग प्रवृत्ति का नियम वेगुम्विय आहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदम्मि । जोगो वि एक्काले एक्केव य होदि णियमेण ।। -गोजी० गा० २४२ प्रमत्तविरत में वैक्रियकाययोगक्रिया और आहारकयोगक्रिया-ये दोनों एक साथ नहीं होती तथा योग भी एक काल में अर्थात् अपने योग्य अन्तमुहूर्त में नियम से एक ही होता है। दो या तीन योग एक जीव में एक साथ नहीं होते हैं । वीरसेनाचार्य ने षट्खण्डागम में कहा है त्रयाणां योगानां प्रवृत्तिरक्रमेण उतनेति ? नाक्रमेण, त्रिष्वक्रमेणकस्यात्मनो योगनिरोधात् । मनोवाक्कायप्रवृत्तयोऽक्रमेण क्वचिद् दृश्यन्त इति चेद् भवतु तासां तथा प्रवृत्तिर्दष्टत्वात्, न तत्प्रयत्नानामक्रमेण वृत्तिस्तथोपदेशाभावादिति । अथ स्यात्प्रयत्नो हि नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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