SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 89 ) निर्वर्तनं -निर्वृत्तिनिष्पत्तिर्जीवस्यैकेन्द्रियादितया निर्वृत्तिर्जीवनिर्वृत्तिः । अर्थात जिसके द्वारा किया जाय वह करण । क्रिया का साधन अथवा करना-वह करण। इस दूसरी व्युत्पत्ति के प्रमाण से करण और निर्वृत्ति एक हो गई ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्योंकि करण आरम्भिक क्रिया रूप है तथा निवृत्ति क्रिया की समाप्ति रूप है। निर्वृत्ति-निर्वर्तन अर्थात् निष्पन्नता। यथा-जीव का एकेन्द्रियादि रूप से निवृत्ति होना जीव-निर्वृत्ति । योग-निवृत्ति का अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है-द्रव्य योग के द्रव्यों के ग्रहण की निष्पन्नता अथवा भावयोग के एक योग से दूसरे योग में परिणमन की निष्पन्नता योग-निर्वृत्ति । योग करण - आगम के मूल पाठ में योग करण की चर्चा नहीं है। भगवई श १९ । उ ९ । सू १०२-११० में २२ करणों की चर्चा है-यथा १-द्रव्य करण, २-क्षेत्र करण, ३-काल करण, ४-भव करण, ५-भाव करण, ६-शरीर करण, ७-इन्द्रिय करण, ८-भाषा करण, ९-मन करण, १०-कषाय करण, ११- समुद्घात करण, १२- संज्ञा करण, १३-लेश्या करण १४-दृष्टि करण, १५-वेद करण, १६-प्राणातिपात करण, १७---पुद्गल करण १८-वर्ण करण, १९ - गंध करण, २०-रस करण, २१-स्पर्श करण, २२-संस्थान करण द्रव्य तथा भाव के भेद से कर्म के दो प्रकार है। उसमें ज्ञानावरणादिरूप पुदगलद्रव्य का पिंड द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यपिंड में फल देने की जो शक्ति-वह भावकर्म है। अथवा कार्य में कारण का व्यवहार होने से उस शक्ति से उत्पन्न हुए जो अज्ञानादि वा क्रोधादि रूप परिणाम वे ही भावकर्म है । जिस कर्म के उदय से सम्यक्त्वगुण का मूल से घात न हो परन्तु परिणामों में कुछ चलायमानपना तथा मलिनपना हो जाय उसे सम्यक्त्व प्रकृति कहते हैं। जो नो अर्थात् ईषत-थोड़ा कषाय हो-प्रबल नहीं हो उसे नोकषाय कहते हैं। उसका जो अनुभाव करावे वह नोकषाय वेदनीयकर्म कहा जाता है। जिसके उदय से ग्लानि अर्थात अपने दोष को ढकना और दूसरे के दोष को प्रगट करना हो वह जुगुप्साकर्म है। जिस कर्म के उदय से मरण के बाद और जन्म के पूर्व अर्थात् विग्रहगति में मरण से पहले के शरीर के आकार आत्मा के प्रदेश रहे अर्थात् पूर्व शरीर के आकार का नाश न हो उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं-ऐसा गोम्मटसार में कहा है-यथा-जिस कर्म के उदय से नरकगति को प्राप्त होने के सम्मुख जीव के शरीर का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीराकार रहे उसे नरकगतिआनुपूर्वी कहते हैं। जिसके उदय से पर को आतप करने वाला शरीर हो वह आतप नामकर्म है अर्थात् उसका उदय सूर्य के विम्ब में उत्पन्न हुए पृथ्वीकायिक जीवों के हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy