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________________ ( 91 ) बुद्धिपूर्वकः, बुद्धिश्चमनोयोगपूर्विका, तथा सिद्धो मनोयोगः शेषयोगाविनाभावीति न, कार्यकारणयोरेककाले समुत्पत्तिविरोधात् । -षट् खं० १।१ । सू ४७ । टीका । पु १ । पृ० २७९-८० अर्थात् मन, वचन और काय की प्रवृत्ति क्वचिद् अक्रम से देखी जाती है। प्रयत्नपूर्वक योगी की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती है। प्रयत्न बुद्धि पूर्वक होता है। बुद्धि मनोयोग पूर्वक होती है। कार्यकारण रूप में एक काल में योगों की समुत्पत्ति का विरोध है। काया के योग से भाषा के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं तथा वचन के योग से भाषा के पुद्गल छोड़े जाते हैं। ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम भाव तथा मोहनीय कर्म के उदय वचनयोग से असत्य भाषा व मिश्र भाषा बोलता है। ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम भाव में वचन के योग से सत्य भाषा व व्यवहार भाषा बोलता है। सयोगी में भंग २-अनादि अपर्यवसित, तथा अनादि सपर्यवसित । मनयोगी, वचनयोगी की कायस्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की होती है। काययोगी की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् वनस्पतिकाल जितना होता है । अयोगी में भंग १-सादि अपर्यवसित । सयोगी व अयोगी का अंतरकाल नहीं है । मनोयोगी, वचनयोगी का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त का, उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् वनस्पतिकाल जितना होता है। काययोगो का अन्तरकाल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त जितना है। अस्तु भाषक की कायस्थिति जघन्य एक समय की व उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है । अभाषक के दो भेद है, यथा--सिद्ध अभाषक और संसारी अभाषक । सिद्ध अभाषक की कायस्थिति आदि अपर्यवसित, संसारी अभाषक की कास्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट अनंतकाल यावत् वनस्पतिकाल । भाषक का अंतरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त का, उत्कृष्ट अनंतकाल यावत् वनस्पतिकाल जितना है। संसारी अभाषक का अन्तरकाल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का होता है। सिद्ध अभाषक का अन्तरकाल नहीं है। कार्यकारण रूप से एक समय में एक काल में योगों की समुत्पत्तिकादिरोध है । योगों के निरोध के समय क्रमशः मन, वचन व काययोग का निरोध होता है। मन वचन व काययोग की प्रवृत्ति को क्वचित् अक्रम से देखी जाती है ( लोकव्यवहार में )। वस्तुतः उन योगों की प्रयत्नरूप प्रवृत्ति अक्रम से नहीं होती है। अतः बुद्धिपूर्वक प्रयत्न होता है तथा बुद्धि मनोपूर्वक होती है तथा मनोयोग सिद्ध हो जाता है। शेष योगों का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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