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________________ ( 86 ) जैन साहित्य में 'योग' शब्द का प्रयोग अध्यात्म योग, भावना योग, संवर योग, ध्यान योग आदि अनेक रूपों में मिलता है। इन सभी योगों को जैन तत्त्व विद्या में समाविष्ट किया जा सकता है। इस दृष्टि से 'जैन योग' योग विद्या का बहुआयामी लक्ष्य लेकर चलता है। ___ 'योग' शब्द भी निष्पत्ति संस्कृति की 'युज' धातु से होती है। इस धातु का प्रयोग भी कई अर्थों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ में इसके दो अर्थ अधिक उपयुक्त है-समाधि और जोड़ना। जिस प्रवृत्ति से मन, बुद्धि और आत्मा को समाधान मिले, वह योग है। इसका दूसरा अर्थ 'जोड़ना' बहुत व्यापाक होने पर भी एक विशेष योजना का प्रतीक है। जिसे अभिव्यक्त करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा है-'मोक्खेण जोयणाओ जोगो सम्बो वि धम्मवावादो' धर्म की सारी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को मोक्ष के साथ जोड़ती है, इसलिए वे योग है। जैन, बौद्ध और बौद्धिक-सभी परम्पराओं में योग विद्या का प्रचलन है और उनके साहित्य में योग की विशद चर्चा है। जैन साधना--पद्धति में योग के तीन अंश माने गये हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारित्र । बौद्ध साधना पद्धति प्रज्ञा ( ज्ञान ), शील ( यम-नियम ) और समाधि (ध्यान-धारणा) को तथा पातंजल योगदर्शन में यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को योग के अंग बताये हैं। सयोगी जीव एजन ( कंपन ), विशेष एजन ( विशेष कंपन) चलन ( एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना ), स्पंदन ( थोड़ा चलना), घट्टन ( सब दिशाओं में चलना), क्षुभित होता, उदीरण आदि क्रियाएँ करता है और उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण आदि पर्यायों को प्राप्त होता है। पूर्वोक्त क्रियाओं को करने वाला जीव सकसकर्म क्षयरूप अंत क्रिया नहीं कर सकता है। शैलेशी अवस्था में योग का निरोध हो जाता है इसीलिग एजनादि क्रिया नहीं होती। एजनादि क्रिया न होने से उसकी आरंभादि में प्रवृत्ति नहीं होती और इसीलिए हर प्राणियों के दुःखादि का कारण नहीं बनता है। इसीलिए योगनिरोध रूप शुक्लध्यान द्वारा अक्रिय आत्मा की सकल क्षयरूप अंत क्रिया होती है। उपशांत मोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली इन तीन गुणस्थानों में रहे हुए जीव के एक साता वेदनीय कर्म का बंध होता है क्योंकि वह सक्रिय है। साधारण अर्थात निगोंद के दो भेद है -नित्यनिगोद जो अव्यवहार राशि के जीवों का पिण्ड है तथा इतर निगोद जो व्यवहार राशि के जीवों का पिण्ड है। दोनो निगोद की सात-सात लाख योनियां है। उनमें तीन योग होते हैं-औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कार्मण काययोग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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