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________________ ( 85 ) कार्मण काययोग-कर्म ही अर्थात् आठ कर्म के कर्मों का स्कन्ध ही, कार्मण अर्थात् कार्मण शरीर है। अथवा कर्मभव अर्थात् कार्मण शरीर नाम कर्म के उदय से जो उत्पन्न हुआ-वह कार्मण है। उस कार्मण स्कन्ध के साथ जो वर्तमान जो सम्प्रयोग अर्थात् आत्मा के कार्मण को आकर्षण करने की शक्ति से संयुक्त प्रदेशों का परिस्पन्द रूप योग है वह कार्मण काययोग है। यह अन्तकाल गति-विग्रह गति में और केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे, पांचवें समय में होता है । जीव प्ररूपणा के बीस भेद हैं उसमें एक पन्द्रह योगमार्गणा भी है। योगमार्गणा में कायबलप्राण अन्तर्भूत है, क्योंकि जीव के प्रदेशों के परिस्पन्द लक्षण वाले काययोग रूप कार्य में उसको बलाधान करने वाले कायबलप्राण स्वरूप कारण की सामान्य विशेषकृत प्रत्यासत्ति होने से कार्यकारणकृत प्रत्यासत्ति होती है। कायबल विशेष है, योग सामान्य है। इसप्रकार सामान्य विशेषभाव प्रत्यासत्ति में योग में कायबल का अंतर्भाव युक्त है। जब-जब आयुबन्ध करता है तब-तब उसके योग्य जघन्ययोग में करता है। उत्कृष्ट योग से आहारित और उत्कृष्ट वृद्धि से वधित होता हुआ बहुत बार उत्कृष्ट योग स्थानों को प्राप्त हुआ, जघन्य योग स्थानों को प्राप्त नहीं हुआ। बहुत बार बहुत संक्लेश रूप परिणामों से परिणत हुआ, विशुद्ध हुआ तो अपने योग्य विशुद्धि से विशुद्ध होता है। नीचे की स्थिति के निषकों का जघन्य पद करता है और ऊपर की स्थिति के निषकों का उत्कृष्ट पद करता है। इसप्रकार भ्रमण करके बादर त्रस पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। वहाँ भ्रमण करते हुए पर्याप्त के भव बहुत धारण किये, अपर्याप्त के भव थोड़े धारण किये। पर्याप्त का काल बहुत हुआ, अपर्याप्त का काल थोड़ा हुआ। इसप्रकार भ्रमण करके अन्तिम भवग्रहण करते समय सातवीं पृथ्वी के नारकियों में उत्पन्न हुआ। उस भव को ग्रहण करने के प्रथम समय में उसके योग्य उत्कृष्ट योग से आहार ग्रहण किया। उत्कृष्ट योग की वृद्धि से बढ़ा। सबसे लघु अन्तमुहूर्त में मव पर्याप्तियों को पूर्ण किया। उस नारकी में तैतीस सागरकाल तक आवश्यक योग और आवश्यक संवलेश को प्राप्त हुआ। इस प्रकार भ्रमण करके थोड़ी आयु शेष रहने पर योग यव मध्य के ऊपर के भाग में अन्तमुहूर्त शेष तक स्थित रहकर जीवन व मध्य रचना की, अन्तिम गुण-हानि रूप योग स्थान में अन्तमुहूर्त काल तक रहकर आयु के अन्त से पहले तीसरे और दूसरे समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त होकर अन्तिम समय में तथा अन्तिम से पहले समय में उत्कृष्ट योगस्थान को प्राप्त करके जब वह उस भव के अन्तिम समय में स्थित होता है तब उसके कार्मणशरीर का उत्कृष्ट संचय होता है। यद्यपि अनंत रहस्यों का खजाना है --योग विद्या। इस खजाने की चाबी जिसे उपलब्ध हो जाती है, उसे सबकुछ उपलब्ध हो सकता है। यही कारण है कि आज इस विषय पर विशेष अन्वेषण और विशेष प्रयोग हो रहे हैं तथा उनके विशेष परिणाम भी आ रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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