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________________ ( 82 ) जहाँ गुण की वृद्धि से, असंख्यातगुणी निर्जरा, समय-समय पर अधिक होती हैवह गुणश्रेणी है। राजा ऋषभ ने भरत का विवाह बाहुवलि की बहिन सुन्दरी के साथ व भरत की बहिन ब्राह्मी का विवाह बाहुबलि के साथ किया । बाहुबलि के दीक्षित होने के बाद चक्रवर्ती भरत ने उनके पुत्र सोमप्रभ को तक्षशिला का शासन भार सौंपा। पैशून्य बड़ा पाप है। इसे पृष्ठ-मांस भोजी कहा है। इसे बचना जरुरी है। इससे अभ्याख्यान से भी बड़ा पाप माना है। तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में भी योग और लेश्या दोनों है। पर वे काययोगी होते हैं—मनोयोगी, वचनयोगी नहीं। लेश्या शुक्ल है । साम्परायिक क्रिया दसवें गुणस्थान तक है। उस क्रिया में अशुभ योग भी हो सकता है । दिगम्बर ग्रन्थों में दसवें, ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में अशुभ योग भी माना है । पीछे-पीछे मांस खाने वाले को पृष्ठ मांस भोजी कहा है। यह बहुत बड़ा तथ्य है । गतिमार्गणा में आयुप्राण अन्तर्भूत है क्योंकि गति और आयु में परस्पर अजहद्वृत्तिरूप प्रत्यासत्ति है क्योंकि गति के बिना आयु नहीं और आयु के बिना गति नहीं। वेदमार्गणा में मैथून संज्ञा अन्तर्भूत है। क्योंकि काम की तीव्रता के वश होकर स्त्री-पुरुष युगल अभिलाषा पूर्वक संभोग रूप जो कृत्य करते हैं वह वेदकर्म के उदय से उत्पन्न हुई पुरुष आदि की अभिलाषा का कार्य है। अत: मैथून संज्ञा और वेदकर्म में कार्यकारण भाव प्रत्यासत्ति है। गोम्मटसार में सास्वादान गुणस्थान में अनंतानुबंधी क्रोध, माया, मान, लोभ में से किसी एक कषाय का उदय होते हुए भी उसकी विवक्षा न होने से आगम में पारिणामिक भाव कहा है। __ जब भाषा में सत् प्रवृत्ति को पुण्य और असत् प्रवृत्ति को पाप कहते हैं । सैद्धान्तिक भाषा में शुभ कर्म पुद्गलों को पुण्य और अशुभ कर्म पुद्गलों को पाप कहते हैं। प्राचीन आचार्यों ने पुण्य को सोने की बेड़ी और पाप को लोहे की बेड़ी से उपमित किया है। जहां शुभ योग की प्रवृत्ति है वहाँ दो काम साथ-साथ में होते हैं-कर्मों का निर्जरण होता है और पुण्य का बंध भी होता है। इस सत्प्रवृत्ति से कर्म की निर्जरा होती है, किन्तु प्रासंगिक रूप में होने वाले कर्म बंधन को रोका नहीं जा सकता। बन्धन मुक्ति और बन्धन साथ-साथ चलते हैं। अस्तु जब तक प्राणी में अहिंसा, सत्य आदि की प्रवृत्ति भी है और कषाय भी है, तब तक वह कुछ तोड़ता है और कुछ बांधता है। किन्तु साधना को आगे बढाते-बढाते वह प्राणी एक दिन कषायों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। तब आत्म-प्रवृत्ति प्रधान रहती है अर्थात् केवल शुभ योग की प्रवृत्ति प्रधान रहती है। पुण्य का बंध नगण्य हो जाता है और आत्मा निरन्तर मुक्ति की ओर बढती जाती है। अन्तिम भूमिका में वह बंध भी अवरुद्ध हो जाता है-अयोगी हो जाता है और आत्मा सदा के लिए मुक्त हो जाती है । ___ अशुभ योग-असत् प्रवृत्ति जो पर-पीड़ा का निमित्त बनती है, वह पाप है। जैसे सत्प्रवृत्ति रूप धर्म के साहचर्य से पुण्य की उत्पत्ति होती है वैसे ही असत्प्रवृत्ति के साहचर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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