SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (81 ) अर्थात् श्रमणी ( साध्वी ), अपगतवेद ( वेदरहित ), परिहार विशुद्धि चारित्रवान, पुलाक, अप्रमत्तसंयत ( सातवें गुणस्थानवर्ती ) चौदह पूर्वधर और आहारक लब्धिवान इनका संहरण नहीं होता है। स्नातक का एक भेद अपरिस्रावी है जो सम्पूर्ण काययोग का निरोध कर लेने पर, स्नातक निष्क्रिय हो जाता है और कर्मप्रवाह सर्वथा रूक जाता है। गोम्मटसार में कहा है-असंयत सम्यग्दृष्टि सौधर्म-ईशान देवी पर्याप्त अवस्था में होती है । अपर्याप्त में असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होता है। गोम्मटसार के अनुसार जीव की अपर्याप्त अवस्था में मनःपर्यवज्ञान व विभंगज्ञान नहीं होता है। केवली समुदघात के समय दो प्राण-काय-आयुष होते हैं तथा योग ३ होते हैं—मन के वचन के योग नहीं होते हैं। गोम्मटसार में कृष्णलेशी सम्यमिथ्यादृष्टि-देवगति के पर्याप्त अवस्था में नहीं है। तथा दिगम्बर परम्परा के अनुसार स्त्री वेदी जीव में मनः पर्यवज्ञान नहीं होता है क्योंकि संक्लिष्ट परिणाम का तदात्म्य स्त्री वेदी में होता है। परिहार विशुद्धि चारित्र में आहारक योग नहीं होता है। आहारक योग चतुर्दश पूर्वधर को होता है परन्तु यह एकान्त नियम नहीं है कि चतुर्दश पूर्वधर आहारक ऋद्धिवाला ही होता है। जीव-परिणति या अध्यवसाय विशेष से आत्मप्रदेश संकुचित-विस्तृत होकर कर्म प्रदेशों को झाड़ देते हैं उसे समुद्घात कहते हैं। जैसे कि-पक्षी अपने पंखों पर लगी हुई धूली या जलकी बूदे, उन्हें फैलाकर सिकोड़कर झाड़ देते हैं। केवली समुद्घात में मनोयोग व वचन योग की प्रवृत्ति नहीं चलती है। उससे निवृत्त होने के बाद मनोयोग-वचन योग की प्रवृत्ति अन्तर्मुहूर्त तक चलती है। उसके बाद जीव काययोग का निरोध कर अयोगी बन जाता है। बाहुबलजी का पौत्र व सोमप्रभ का पुत्र श्रेयांसकुमार था जिसने भगवान ऋषभ को प्रथम दान दिया था। ब्राह्मी की दीक्षा सुन्दरी के पूर्व हो गयी थी। आतप नाम कर्म का उदय केवल सूर्य के मंडल में मिलता है। चार वर्णों में तीन वर्षों की उत्पत्ति ऋषभ नरेश के समय हो गई थी-ब्राह्मण वर्ग की स्थापना भरत के शासन काल में हुई। करोड़ पूर्व से अधिक आयुवाले मनुष्य सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते है। युगलिये मरकर अपनी आयु से अधिक आयु वाले देव नहीं होते हैं । __ अ, इ, उ, ऋ और ल-ये पाँच ह्रस्व अक्षर है । इनका न द्रुत, न विलंवित, किन्तु मध्यम उच्चारण ग्रहण किया गया है। कहा है हस्सक्खराई मज्झणं जेण कालेणं पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियं मेत्तं तओ कालं ॥ --उव० टीकोद्धत गाथा शैलेश =मेरु, मेरुसी, स्थिर अडोल अवस्था-शैलेशी। अथवा शीलेश-सर्व संवर रूप चारित्र के प्रभु । शीलेश की योग निरोध रूप अवस्था शैलेशी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy