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________________ ( 83 ) से पाप की उत्पत्ति होती है । पुण्य-पाप फल है । है । जैन दर्शन आत्मा को परिणामी नित्य मानता है । वाग् दो प्रकार की है - द्रव्यवागू और भाव - वाग् अर्थात् वचन - वोलने के लिए जिन पुद्गलों की सहायता ली जाती है-वह है द्रव्य वचन | उसके बाद पुद्गलों की सहायता से आत्मा की जो प्रवृत्ति होती है वह भाव बचन । अतः भाव वचन को हम वचोयोग भी कह सकते हैं । यद्यपि वचोयोग की प्रवृत्ति का निमित्त द्रव्य वचन है जो कि पौद्गलिक है । जैसा कि राजवात्तिककार ने भी नहीं किया है। पर आगे चलकर उन्होंने भाव वाग् को पुद्गलों का कार्य मात्र माना है । यह ठीक नहीं है । क्योंकि वचोयोग आत्मप्रवृत्ति है और वह पौद्गलिक नहीं हो सकती । कर्मक्षयोपशम जन्य आत्म-सामर्थ्य को पौद्गलिक नहीं मानना चाहिए । अपने प्रकटित सामर्थ्य के द्वारा आत्मा जिसको ग्रहण करता है वह द्रव्य वचन है । इससे उनका कहना ठीक है । वह सामथ्यं पौद्गलिक कैसे हो सकता है | ये दोनों धर्म और अधर्म के प्रासंगिक भगवती शतक इसीप्रकार भावमन और द्रव्यमन के विषय में जानना चाहिए । २५ | उद्देशक १ में भाषा और मन को योग कहा है । योग को आस्रव कहा गया है । आस्रव जीव है क्योंकि वह आत्मा की प्रवृत्ति है । योग भी जीव है और जीव पौदगलिक नहीं हो सकता । अतः भावमन भी पौद्गलिक नहीं है । अस्तु पारिणामिक भाव का मतलब है-वस्तु का अपने स्वभाव परिणत होना । अतः भावमन जो अपने रूप में परिणत होता है वह पारिणामिक भाव है । पर एक भावमन ही पारिणामिक नहीं है क्योंकि परिभाषा के अनुसार पर्याय मात्र पारिणामिकभाव है । द्रव्यमन भी पारिणामिक है । जैसा कि अनुयोगद्वार में जीव को जीवपरिणामी कहा है और अजीव को अजीवपरिणामी कहा है । तथा पण्णवण्णा पद १३ में भी इसका विवेचन है । अस्तु भावमन तो पौद्गलिक है ही नहीं और पर्याप्ति पौद्गलिक है । अतः उसका भावमन से कोई सम्बन्ध नहीं है । पर्याप्ति के द्वारा मन के योग्य पुद्गलों का आदानपरिणमन और उत्सर्ग होता है पर एक नहीं है । अतः मन और भाषा पर्याप्ति भिन्न है । २ - औदारिक मिश्र काययोग -जब औदारिकशरीर अन्तर्मुहूर्तकाल तक अपूर्ण अर्थात् अपर्याप्त होता है तब उसको औदारिकमिश्र कहते हैं । कार्मणकाययोग से आकृष्ट कार्मणवर्गणा से संयुक्त होने से औदारिकमिश्र कहते हैं जब जीव पूर्व शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करने के लिए विग्रहगति से गमन करता है तब उसके अधिक से अधिक दो समय (दिगम्बर परम्परानुसार तीन समय ) तक उसके कार्मणकाययोग होता है । उससे कार्मणवर्गणाओं का ग्रहण होता है । इस तरह कार्मण और औदारिकवर्गणा का मेल होने से अपर्याप्त अवस्था में औदारिक को ही औदारिकमिश्र कहा जाता है । अथवा परमागम Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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