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( २६८ ) भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्य सरणामकम्मोदइल्लस्स वचिजोगस्सुवलंभा खओवसमिओ वचिजोगो। वीरियंतराइयस्स सव्वधादिफयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण कायजोगुवलंभादो खओवसमिओ कायजोगो।
अजोगी णाम कधं भवदि ?
-षट् खण्ड ० २ । १ । सू ३४ । पु ७ पृष्ठ० ७८ धोका-एत्थ णय-णिक्खेवेहि अजोगित्तस्स पुव्वं व चालणा कायव्वा ।
खइयाए नद्धीए।
-षट् • खण्ड ० २ । १ सू ३५ । पु ७ । पृष्ठ ० ७८ टोका-जोगकारणसरीरादिकम्माणं णिम्मूलखएणुप्पण्णत्तादो खइया लद्धी अजोगस्स।
योगमार्गणानुसार जीव मनोयोगी, वचनयोगी और वचनयोगी कैसे कहते हैं ।
शंका-क्या योग औदयिक भाव है, कि क्षायोपशमिक, कि परिणामिक, कि क्षायिक, कि औपशमिक ?
योग क्षायिक तो हो नहीं सकता? क्योंकि वैसा मानने में तो सर्वकर्मों के उदय सहित संसारी जीवों के वर्तमान रहते हुए भी योग के अभाव का प्रसंग आजायेगा। तथा सर्व कर्मोदय से रहित सिद्धों के योग के अस्तित्व का प्रसंग आ जायेगा। योग पारिणामिक भाव भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर भी क्षायिक मानने से उत्पन्न होने वाले समस्त दोषों का प्रसंग आ जायेगा। योग औपशमिक भी नहीं है, क्योंकि औपशमिक भाव से रहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में योग के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। योग घातिकर्मों के उदय से उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि सयोगिकेवली में घातिकर्मों के उदयक्षीण होने के साथ ही योग के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। योग अघातिकर्मों के उदय से उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि वैसा मानने से अयोगिकेवली में भी योग की सत्ता का प्रसंग आ जायेगा। योग घातिकर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि इससे भी सयोगिकेवली में योग के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। योग अघातिकर्मों के क्षयोपशम से भी उत्पन्न नहीं है, क्योंकि अघातिकर्मों में सर्वघाती और देशघाती दोनों प्रकार के स्पर्धकों का अभाव होने से क्षयोपशम का भी अभाव है। यह सब मन में विचार कर पूछा गया है कि जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी कैसे होता है।
क्षायोपशमिक लब्धि से जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होता
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