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________________ ( २६९ ) शंका-जीव प्रदेशों के संकोच और विकोच अर्थात् विस्तार रूप परिस्पंदन को योग कहते हैं। यह परिस्पन्द कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है, क्योंकि कर्मोदय से रहित सिद्धों के वह नहीं पाया जाता। अयोगिकेवली में योग के अभाव से यह कहना उचित नहीं है कि योग औदयिक नहीं होता, क्योंकि अयोगिकेवली के यदि योग नहीं होता तो शरीर नामकर्म का उदय भी तो नहीं होता। शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला योग उस कर्मोदय के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने से अतिप्रसंग दोष उत्पन्न होगा। इस प्रकार जब योग औदायक होता है तो उसे क्षायोपमिक क्यों कहते हैं ? समाधान-ऐसा नहीं, क्योंकि जब शरीर नामकर्म के उदय से शरीर बनने के योग्य बहुत से पुद्गलों का संचय होता है और वीर्यान्तराय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव से व उन्हीं स्पर्धकों के सत्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक कहलानेवाला वीर्य ( बल ) बढ़ता है, तब उस वीर्य को पाकर चंकि जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच बढ़ता है, अतः योग को क्षायोपशमिक कहा गया है। शंका-यदि वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानि से जीव प्रदेशों के परिस्पन्द की वृद्धि और हानि होती है तब तो जिसके अन्तराय कर्म का क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीव में योग की बहुलता का प्रसंग आता है। समाधान नहीं आता, क्योंकि क्षायोपमिक बल से क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है। क्षायोपशमिक बल की वृद्धि-हानि से वृद्धि-हानि को प्राप्त होनेवाला जीवप्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिक बल से वृद्धि-हानि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आ जायेगा। शंका-यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, तो सयोगिकेवलौ में योग के अभाव का प्रसंग आता है ? समाधान – नहीं आता, क्योंकि योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से माना गया है। असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोगिकेवली में अभाव मानने में विरोध आता है। वह योग तीन प्रकार का है-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्यमन के अवलम्बन से जो जीवका संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है। भाषावर्गणा सम्बन्धी पुद्गल स्कंधों के अवलम्बन से जो जीवप्रदेशों का संकोचविकोच होता है वह वचनयोग है। जो चतुर्विध शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है वह काययोग है। शंका-दो या तीन योग एक साथ क्यों नहीं होते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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