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________________ । स्वतन्त्रता की पवित्र भावना | बाहुडली के निकट भरत वन्दनीय है, पूज्य है, लेकिन अग्रज के रूप में भरत जब राजा बनकर धाये और अपने बल का प्रदर्शन कर अधीनता की अपेक्षा की तो बाहुबली विद्रोही बन बैठे कर्म भूमि का यह पहला सफल विद्रोह था, जब स्वतन्त्र मन ने सत्ता को नमन करने से इन्कार कर दिया। सत्ता को चुनौती का यह स्वर सदा-सदा के लिये प्रेरणा बन गया, आदर्श बन गया। बाहुबली प्रथम क्रान्तिकारी थे, जिन्होंने अपने स्वस्थ की रक्षा की और इसके लिये युद्ध को स्वीकार किया। सत्ता विद्रोह को सहन नहीं कर सकती । उसका अपना तोल होता है। भरत एक राष्ट्र, एक शासन, एक व्यवस्था के तले सारी धरती को लाना चाहते थे । उनका अपना लक्ष्य था और इसमें किसी प्रकार की बाधा उन्हें स्वीकार नहीं थी । राज की आधार शिला मजबूत करने के लिये भरत के समक्ष बाहुबली अनुज नहीं रह गये थे, उन्हें चुनौती देने वाले विद्रोही थे और सत्ता विद्रोही को कभी स्वीकार नहीं कर सकती । कर्म भूमि का पहला युद्ध भगवान आदिनाथ के ही दो पुत्रों के बीच हुआ। दोनों ने दृष्टि युद्ध, जल युद्ध व मल्लयुद्ध में उतरना स्वीकार किया। बाहुबली विद्रोही थे, लेकिन यह भी उन्हें अहसास था कि भरत के साथ एक अन्य सत्ता भी जुड़ी हुई है, कि भरत उनके अग्रज हैं, सम्माननीय है। बाहुबली विद्रोही होकर भी विनयनत रहे और शायद यही उनकी विजय का भी कारण रहा। कर्म भूमि में प्रवेश के साथ हुए इस प्रथम विद्रोह में विद्रोही की विजय और उसके बाद चरम भोग्य मुक्ति का वरण इस काल की गौरव पूर्ण घटना हैं। इसने विद्रोही को सदैव पूजित कर दिया, वन्दनीय बना दिया। विजयश्री Jain Education International उन्हें वरण करती रही क्रांति अमर रहे, क्रान्ति सदैव अमर हैं, का उद्घोष किया पहलीबार बाहुबली ने, जो युगों तक के लिये प्रेरणा सूत्र बन गया । बाहुबली विनीत भाव से दृष्टि-युद्ध के लिये प्रस्तुत हुये। भरत बड़े थे, बडप्पन का अहंकार भी वहाँ रहा होगा। उनकी दृष्टि ऊंची थी, आकाश की घोर थी चुनौती में भरत की दृष्टि झुक गयी, उनकी पलकें गिर गयी। प्राकाश धरती पर उतर आया । धरती अपनो जगह कायम रह गयी विनीत विजयी हुआ। पहला युद्ध उनके । हाथ रहा, जो धरती के थे, धरती के लिये थे तथा जिनकी दृष्टि धरती पर थी । दोनों भाई धरती से जल में उतरे। बाहुबली ने जल को नीचे से धजुली में लिया और सामने बौछार की। भरत की अंजुली ऊपर थी और बौछार भी ऊपर से हो रही थी। भरत थक गये, बाहुबली की प्रेम की बौछार बराबर चलती रही । ऊपर का हाथ, नीचे के हाथ से परास्त हो गया । निर्णायक दौर में मल्लयुद्ध हुआ । बाहुबली का ध्यान धरती पर था, बढ़े भाई के चरणों पर था । उन्होंने भरत के चरण कस कर पकड़ लिये । भरत पैर छुड़ाकर अन्य दांव-पेंच करने को हों, तब तक बाहुबली ने उन्हें उठा लिया, शिरोधार्य कर लिया । अग्रज बाहुबली के सिर पर थे, लेकिन सत्ता विद्रोही के हाथ कुशलता चाह रही थी। बाहुबली ने अग्रज को ससम्मान धरती पर खड़ा खड़ा कर दिया। लेकिन सत्ता अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकी, उसका प्राक्रोश तीव्र हो उठा। भरत अपना आपा खो बैठे और सत्ता के प्रतीक चक्ररत्न को बाहुबली पर चला दिया । चक्र तेजीं के साथ बाहुबली के मस्तक तक पहुंच कर मस्तक को बंध करे, इससे पूर्व ही उसकी गति रूक गयी, वह 2/8 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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