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________________ वापस हो गया। भरत का पुण्य फलित चक्र अनुज से उतरो।" भाई भरत पहुचे, योगी के चरणों पर नहीं चला। सत्ता का अह्म टूट गया, वह में नत हो गये, प्रांसू पद-प्रक्षालन करने लगे। निस्तेज हो गयी। सत्ता अब विद्रोही के चरणों अश्रुपूरित नेत्रों से भरत ने वाहुबली को निहारा में थी। अग्रज का यह नमन अनुज सहन नहीं कर और देखा कि अनुज अब योगी है, भरत जैसे अनेक सका। विजयी होकर बाहुबली भी स्वयं को चक्रवर्ती हो गये, जो आये और चले गये । यह असहाय अहसास करने लगे। उन्हें लगा कि धरती धरती कायम हैं और कायम रहेगी। बाहुबली और राज्य सत्य नहीं है, शिव भी नहीं है। सत्य, जाग्रत हुए, उनकी अन्तर्चेतना में लगा कि वे शिव और सौंन्दर्य कहीं अन्यत्र है और इसी चरम अहंकार के गज पर बैठे हुए हैं, उन्हें नीचे उतरना भोग्य की खोज में जाने को वे विकल हो उठे। ही होगा । अन्तर के द्वन्द्व से दूर वास्तव में विनयी उन्हें लगा कि यह धरती और राज माया है, होना होगा । यह धरती और आकॉश कब किसका छलना है, भ्रम है । यह अपार परिग्रह, चक्रवर्तित्त्व रहा है, यह तो माया है, छलना है । "अह्म" और स्वामित्व किस अर्थ का, जो स्वयं से युद्ध विकलित होकर "ौम्' हो गया । त्यागी बाहुबली रचा देता है। वाहुबली का विद्रोही व्यक्तित्व वीतराग हो गये, भगवान हो गये। उन्हें अपना उलझा नहीं रह सका और निकल पडा सत्य और चरम-भोग्य मिल गया। शिव की खोज में : बाहुबली चतुर्थ काल के, कर्म भूमि के प्रथम विद्रोही थे, जिन्होंने सत्ता को चुनौती देकर आदिनाथ के इस महान् पुत्र ने दीक्षा नहीं 'स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार" को ली, अपने लिये अपना मार्ग खोजने स्वयं ही निकल उद्घोषित किया और उसकी रक्षा की। वे क्रांतिपड़े। दूर-सुदूर वन प्रान्तर में बाहुबली समाधिस्थ हो गये । चिन्तन, गहन चिन्तन में एक वर्ष व्यतीत कारी थे, जिन्होंने माया के प्रावरणों को छिन्नहोकर प्रतीत हो गया। दीमकों ने देह पर घर कर भिन्न कर दिया । जिन्होंने स्वयं अपना मार्ग खोजा और उस पर चल पड़े । प्रात्मोत्सर्ग का इतना बड़ा लिये। लतायें शरीर पर चढ गयी, सांपों ने बांबिया बना ली । ऐसी तपस्या कि बाहुबली शरीर विस्तार बाहुबली में ही सम्भव था। में होते हुए भी प्र-शरीरी हो गये। लेकिन, एक बाहबली ने भगवान आदिनाथ के समक्ष मोक्षशल्य उन्हें परमज्ञानी होने, मोक्षगामी होने से गामी होकर भगवान के चारों पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, रोके हुए था। उनका यह शल्य दूर नहीं हो रहा काम और मोक्ष को सार्थक कर दिया, चरितार्थ था कि उनके तलवे जिस धरती पर हैं, वह भरत कर दिया। की है। भरत के अमात्य का यह वाक् प्रहार उन्हें साल रहा था कि “कहीं भी जानो; तुम्हें भरत की यह धरती धन्य है कि प्रथम मोक्षगामी धरती मिलेगी, उससे तुम मुक्त नहीं हो सकोगे।" बाहुबली अपने पूर्ण वितरागी वैभव के साथ और बाहुबली इसे सत्य मानकर इसमें उलझ गये विन्ध्य गिरी पर विराजमान है, एक हजार बर्ष से थे, मुक्त नहीं हो पा रहे थे। मूर्तिमान है। दिगम्वरत्व का ऐसा सौंन्दर्य कि त्रिलोकमोहनी भव्य स्वरूप और अमन्द मुस्कान समाधिस्थ बाहबली की सेवा में बहिनें पहची, को सदा के लिये प्रांखों में बसा लिया जाय । वन्दना की और निवेदन किया कि "भइया. गज विशालता म इतना सरलता, कमनायता व शाला -2/9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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