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________________ समय-समय पर बदलता रहा है। हमें वास्तविक 'प्रभावना' समझने के लिए विभिन्न प्राचार्यों एवं लेखकों द्वारा रचित 'प्रभावना' के उल्लेखों का भाव समझना होगा तभी हम उक्त प्रभावना के वर्तमान स्वरूप एवं उसमें कनीय परीवर्तन की श्रावश्यकता समझ सकेंगे । " प्राचार्य प्रवर] कुन्दकुन्द ने समयसार के निर्जरा श्रधिकार में प्रभावना अंग का स्वरूप इस प्रकार बताया है -: जो प्रारमा विद्या रूपी रथ पर चढ़ कर मन रूपी रथ के मार्ग में भ्रमण करता है वह जिन भगवान के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि जानने योग्य है । वर्णी गणेशप्रसादजी ने उक्त गाथा का विशेपार्थ लिखा है कि सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञान की सम्पूर्ण शक्ति के विकास द्वारा ज्ञान की प्रभावना का जनक है अतः उसे प्रभावना अंग का धारी कहा है। इससे उसके निर्जरा ही होती हैं । कार्तिकेयानुप्रेक्षाकार ने प्रभावना अंग का वर्णन इस प्रकार किया है : जो आत्मा भव्य जीवों के लिए दस प्रकार के निर्मल धर्म का प्रकाश करता है और भेदज्ञान से अपने आपको अनुभव करता है वह सम्यग्दर्शन का प्रभावना अंग है । (421) स्वामी समंतभद्र ने रतनकरण श्रावकाचार में अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने को प्रमुखता देते हुए लिखा है- अज्ञान रूपी अंधकार के प्रसार को यथा संभव उपायों के द्वारा दूर कर के जिन शासन के माहात्म्य को प्रकाशित करना प्रभावना है। (18) अध्यात्म प्रवक्ता प्रमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में प्रभावना का निश्चय एवं व्यवहार परक स्वरूप इस प्रकार लिखा है :--- Jain Education International रत्नत्रय के तेज से निरंतर ही अपनी आत्मा को प्रभावित करना चाहिए तथा दान, तप, जिन पूजा और विद्या के अतिशय के द्वारा जिन धर्म की प्रभावना करनी चाहिए। (30) सुप्रसिद्ध विद्वान पांडे राजमलजी ने सम्यग्दर्शन के आठों ही अंगों के अंतरंग एवं वाह्य (या स्क एवं पर) अपेक्षा दो-दो भेद किए हैं । कोई जीव मोहरूपी शत्रु के नाश होने से शुद्ध हो जाता है कोई शुद्ध से शुद्धत्तर हो जाता है और कोई शुद्धतम हो जाता है। इस प्रकार अपना उत्कर्ष करना स्वात्म प्रभावना है । विद्या मंत्र आदि के बल द्वारा तथा तप और दान यादि के द्वारा जैन धर्म का उत्कर्ष करना बाह्य प्रभावना अंग है । 3/311-313. पंडित टोडरमलजी ने अपने स्वरूप की व जिनधर्म की महिमा प्रकट करने को प्रभावना कहा है । (मोक्ष मार्ग प्रकाशक ) इस प्रकार उच्च कोटि के आचार्यों एवं विद्वानों ने स्वात्मा की प्रभावना को मुख्यता दी है. परात्मा व जैन धर्म की प्रभावना को बाह्य प्रभावना कहा हैं। अपने स्वरूप को शुद्ध, शुद्धत र एवं शुद्धतम बनाने की भावना पर जोर दिया गया हैं। आत्म कल्याण हो जाने से जैन धर्म की प्रभावना स्वतः हो जायगी। अन्य लोग सदाचारी मुमुक्षु के जीवन से प्रभावित होते हो हैं । अतः अम्रत चंद्राचार्य ने गृहस्थ को अपने जीवन में रत्नत्रय का तेज प्रकट करने की बात कही हैं, किंतु साथ ही अन्य लोगों में जैन धर्म की प्रभावना हेतु गृहस्थ के लिए दान, तप, जिन पूजा और विद्या की साधना करने का उपदेश दिया हैं। जो गृहस्थ न्यायोपार्जित धन को लोभ कषाय कम करने हेतु धार्मिक कार्यों में बिना किसी लौकिक कामना के उपयोग करता हैं तो उससे जैन धर्म की भी प्रभावना होती हैं। 4/14 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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