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________________ धर्म की प्रभावना कैसे करें ? 0 बंशीधर शास्त्री, एम. ए. लेखक महानुभाव ने बहुत ही समयोचित प्रश्न उठाया है । हम बहुत चाहते हैं कि आज के संतप्त मानव को देश विदेश में महावीर का कल्याणकारी सन्देश प्राप्त हो, वे उसे समझे; हम स्वयं भी उसे भली भांति समझ कर जीवन में उतार सकें। पर जो कुछ भी हम धर्म की अन्तरबाह्य प्रभावना हेतु करते हैं वह कितना फलदायी है यह विचारणीय है । - सम्पादक - बम्बई व अहमदाबाद में महावीर जयन्ती के इस सूत्र से प्रायः सभी परिचित हैं। मोक्षमार्ग अवसर पर समारोह के अंत में मन्दिर में उपस्थित में सम्यग्दर्शन का महत्व सर्व विदित है। सत् जनसमुदाय को चीनी के पेड़े दिए गए थे श्रद्धा बिना मोक्ष मार्ग ही नहीं बनता भले ही जिसे वहां 'प्रभावना' का नाम दिया गया था। आज कोई इसकी उपेक्षा करे । सम्यग्ज्ञदर्शन बिना कभी-कभी जैन मित्र में यह समाचार पढ़ने को ज्ञान व चारित्र 'सम्यक' विशेषण नहीं पाते । प्रागम मिलता है कि अमुक समारोह पर प्रभावना बांटी मार्ग तो यही है। वैसे इसकी उपेक्षा कर कोई गई। मैं सोचता है कि यह कैसी प्रभावना है ? सम्यग्दर्शन बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्र की इससे क्या जैन धर्म की प्रभावना होती है ? मैंने सिद्धि करे तो वह उसका निजि मंतव्य हो सकता पहले मन्दिरों में इस प्रकार खाद्य पदार्थों के है न कि जैनाचार्यों का। वितरण को गलत परम्परा बताई थी। यह सम्यग्दर्शन के 8 अंग बताए गए हैं:-निशंकित 'प्रभावना' सम्यग्दर्शन के प्रभावना अंग की ही। निःकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, प्रतीक समझी जाती है। स्थितिकरण वात्सल्य और प्रभावना । (चारित्र चाहे कुछ भाई इसे प्रभावना समझ कर ही। पाहुड़) वितरण करते हैं तो वे 'प्रभावना' का सीमित प्राचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि उक्त आठ संकुचित अर्थ करते हैं, वे प्रभावना का वास्तविक अंगों में से किसी भी अंग से हीन सम्यग्दर्शन संसार स्वरूप एवं महत्व नहीं जानते । अत: इस लेख में की परंपरा को छेदने के लिए समर्थ नहीं है। 'प्रभावना' को समझने का प्रयास किया जा रहा ( रत्नकरण श्रावकाचार-21 ) इस कथन में है । तत्वार्थ सूत्रकार प्राचार्य उमास्वामी ने प्रथम 'प्रभावना' का मोक्ष मार्ग में कितना महत्व है सूत्र ही यह लिखा है : यह हमें स्पष्ट हो जाता है। यहां यह स्पष्ट कर सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । देना आवश्यक है कि इस 'प्रभावना' का बाह्य रूप 4/13 Jain Education International or For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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