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________________ र तप विद्या प्रादि के द्वारा लोगों को अब धन को शोषण का फल समझा जाता है। अतः गरप की प्रेरणा दी जा सकती हैं या इन प्रदर्शनों से अन्ध समाज विशेषकर साधारण उनके तपोमय जीवन से स्व कल्याण की वर्ग पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। अतः जैन ग्रहण करते हैं यह वास्तविक प्रभावना समाज के विवेकशील वर्ग को सोचना चाहिये कि ज्यकाल में मंत्रादि के चमत्कार से भी लोगों जैन धर्म की प्रभावना के लिए हम क्या करें ? नावित करने की परंपरा रही हैं। अतः माज रथ, हाथी, घोड़े, चांदी के उपकरणो, हेलिकों की परंपरा में विकसित पाण्डे राजमलजी कोप्टर से पुष्प-वर्षा मादि के प्रदर्शनों का युग नही. को भी बाह्य प्रभावना का साधन बताया रहा। उदाहरण के लिए ईसाई समाज को लें। स्वत: मंत्रों का प्रभाव स्थायी नहीं होता। मैंने उन्हें ऐसे प्रदर्शनात्मक जुलूस निकालते हुए माशानुकूल फल मिले तो ठीक नहीं तो कभी नहीं देखा फिर भी वे ईसाई धर्म की कितनी प्रभाव समाप्त, जबकि फल कर्माधीन हैं। प्रभावना करते हैं यह सब ज्ञात है। वे दुःखी, मध्यकाल में अनेक ऐसे भट्टारक व विद्वान असहाय लोगों की सहायता करने एवं ईसाई जिन्होंने स्वात्म प्रभावना को गौरण कर दिया साहित्य के प्रचार में करोड़ों, अरबों रुपया प्रतिवर्ष जिन बिम्ब और चैत्यालय की स्थापना व्यय करते हैं जिससे उनकी प्रभावना स्वतः हो सदेव) पूजा, दान, विद्या (गुण भूषण) ग्रादि को हो जाती है । ईसा मसीह के साहित्य को बिना जवना कार्यों में मुख्यता दी। पद्मनंदी ने 15वीं र मूल्य वि मूल्य वितरित करते है ताकि लोग उनसे परिचित में रचित श्रावकाचार-सारोद्धार में अमृतचन्द्र हों। प्राज बाइबिल विश्व की सब भाषाओं में भावना संबन्धी श्लोक को उद्धृत कर प्रभावना मिलती है जब कि जैन साहित्य विश्व की सब तो निम्न कार्यों का और उल्लेख किया है : दूर-प्रमुख भाषामों-अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मनी आदितथा भारत की सब भाषाओं में भी नहीं मिलता। आज शास्त्रों का मर्थ व्याख्यान करके, विद्या दान प्रति वर्ष हमारा लाखों, करोड़ों रुपया ऐसे प्रदर्शनों र और पूजा प्रतिष्ठादि के द्वारा इस लोक में खर्च होता हैं जिनका कोई स्थायी महत्व नहीं बन्धी फल की अपेक्षा नहीं करता हुआ जैन । __ होता। यदि यही रुपया साहित्य प्रचार या दीन सन का सत्प्रकाशन करे। दुखी की सहायता में लगे तो सच्ची प्रभावना हो । वस्तुतः ज्ञान के प्रसार से ही जैन धर्म की ची प्रभावना हो सकती है किन्तु मध्यकाल में अतः साधु एवं श्रावक दोनों को प्रभावना का मान, पूजा आदि के साथ बाहरी प्रदर्शनों पर भी सही मार्ग अपन,ना होगा। तभी जैन धर्म की और दिया जाने लगा। इन प्रदर्शनों में पंच सच्ची प्रभावना होगी। ल्यापक प्रतिष्ठा रथ यात्रा आदि का मुख्य रूप सहारा लिया गया। नगर में रथ यात्रा के मेरा विनम्र निवेदन है कि - समय चांदी के उपकरण, हाथी, घोड़े, पालकी, 1. साधु-त्यागी व्रती अपने पद की मर्यादा के जे आदि का प्रदर्शन होता था। उस समय अन्य अनुरूप ज्ञान-ध्यान में लीन रहें, वे गृहस्थों के कार्य लोगों पर जैन समाज के सदाचारी एवं धनी होने न करें: द्रव्य दान, पूजा गृहस्थ के कार्य हैं अतः का शुभ प्रभाव पड़ता था। उस समय धन को - वही उन्हें करे तो अच्छा है। साधु के ज्ञान-ध्यान शुभ कार्य सम्पन्न करने का फल माना जाता था इसलिए समाज के साधारण वर्ग पर अच्छा प्रभाव ही दर्शक-श्रोता भक्त को सद् मार्ग की प्रेरणा पड़ता था। अब धीरे २ युग बदलता जा रहा है। देते हैं। 4/15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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