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________________ इस उद्देश्य के लिए पहले से ही गठित हैं एवं निबद्ध कार्यरत हैं तो नई संस्था खड़ी करना अनुचित हैं । शक्ति, उत्साह एवं धन के बिखराव को रोकना ही श्रेयस्कर होता हैं । 2 – लक्ष्य का सवाल- यह सर्वाधिक महत्व का प्रश्न हैं। यहां निम्न पहलु विचारणीय हैं । प्रथम, क्या लक्ष्य सार्वजनिक महत्व का, सकारात्मक एवं स्वयं पर आधारित हैं ? द्वितीय, क्या लक्ष्य पूर्णत: परिभाषित, स्पष्ट एवं निश्चित हैं? तृतीय- लक्ष्य तात्कालिक हैं अथवा शाश्वत ? कभी-कभी यह भी देखा गया हैं कि लक्ष्य के नाम पर वहां सिर्फ क्षणिक भावावेश एवं उत्साह ही होता हैं । शाश्वत सत्य का आधार कोई शाश्वत चीज जैसे कि धर्म, मानवीय मूल्य आदि ही हो सकता हैं । व्यक्ति विशेष के सहारे खड़ी, चिरजीवी होने के सपने देखने वाली संस्था सनातन लक्ष्य को लेकर भी शीघ्र ही अधोपतन की ओर जाती है । 3 - कहीं संस्था की गतिविधियों पर लक्ष्मीपतियों का प्राधिपत्य तो नहीं हैं ? सरस्वती एवं चारित्र की कीमत का अंकन श्राज सबसे बड़ी श्रावश्यकता हैं । अर्थ प्रधान गतिविधियों से संस्थायें अपने स्वाभिमान, पवित्रता एवं निष्टा को प्रक्षुण्ण नहीं रख सकती । विद्वानों, बुद्धिजीवियों तथा सेवा भावी व्यक्तियों को आँखों पर बिठाकर संस्थायें वह काम कर सकती हैं जो शायद धनिकों के आश्रय से सम्भव न हो । 4 - कहीं संस्था सामाजिक एकता के नाम पर अनीति का समर्थन तो नहीं कर रही ? लगता हैं, वर्तमान परिस्थितियों में कथिक सामाजिक एकता की बात ही विसंवाद हैं । सत्य की लाश पर समाज संगठन की दुहाई देकर अनैतिक तत्वों एवं प्रवृत्तियों को प्रश्रय देना Jain Education International घातक आत्म प्रवंचना सिद्ध होगी । वहां न तो नैतिक मूल्य ही जीवित रहने वाले हैं और न ही संगठन । सत्य एवं संगठन को अलग २ दायरों में देखना भारी भूल हैं । धर्म व नीति से अनुप्राणित समाज एकता का समर्थन ही संस्था को उज्जवल रख सकना हैं । अन्त में एक बात और बुजु प्रा होश की बात भी बेमानी लगती हैं । सामान्यतया प्रौढ़ावस्था में, यदि व्यक्ति सतत सुचिन्तक न हो तो उसके विचारों जड़ता श्रा जाती हैं । उनकी कार्यप्रणाली एवं चिन्तन चक्र ढर्रे में बन्ध जाते हैं तथा उनके मित्रों एवं समान विचार धारा वालों का एक निश्चित वर्ग बन जाता हैं । अतः, प्रथम तो अधिकांशतः यह समाज प्रमुख खुले मस्तिष्क से सोच ही नहीं पाते, तथा फिर कहीं संस्था में कुछ गलत या अनैतिक भी महसूस करते हैं तो कुछ कर नहीं सकते, क्योंकि इससे उनके समर्थकों व कार्यकर्ताओं के टूट जाने का पूरा पूरा डर रहता हैं । वे ये जानते हैं कि इन समर्थकों के बिना ( जो चाहे भ्रष्ट ही सही) उनकी महत्वकांक्षाएं पूर्णा नहीं हो सकती । कच्ची उम्र के पूरे होश में छिछोरे इन तरूणों से भी अधिक प्रांशा रखना संभव नहीं, क्योंकि कोई भी लच्छेदार बात, लोभ प्रथा बड़े बुर्जुगों का आग्रह उन्हें दिग्भ्रमित कर सकता हैं । अतः अब आशा का केन्द्र केवल वो संस्थायें बच रहती हैं, जिनका संचालन मध्यम वर्ग के 'युवा - बुजुर्गों' द्वारा किया जाता हैं । पूर्वाग्रह से रहित, उदारवादी मानसिकता से भीगी, किन्हीं भी अवरोधों से टकराने को तत्पर, सतर्क विचारधाराओं को अपनाने की सामर्थ्य लिए एवं समुचित उत्साह से कुछ नया कर गुजरने को आतुर ये कुछ अद्भुत ही वयः संधि होती हैं । देर सिर्फ दायित्व वहन करने एवं समर्पित होने की है । किन्तु उन्हें यह उपदेश देने कोई दूसरा नहीं आयेगा, स्वयं ही उनमें यह हूक समाजहित एवं आत्महित के विए पैदा हो तो बात बने । 4/12 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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