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________________ चार्वाक दर्शन में मोक्षः करते हैं) दुःख का नाश होता है, और दुःखों के भी नाश करने का उपाय है। संसार के माया जाल में चार्वाक दर्शन में मोक्ष को नहीं माना गया है। फंसे हुए लोग राग, द्वेष मोहादि विषय वासनामों चार्वाक का कथन है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर से नहीं छुट पाते हैं । रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार सब कुछ नष्ट हो जाता है । तप, ध्यान आदि से और विज्ञान ये पांच स्कंध दुःख हैं, जिससे मुक्त कुछ नहीं होता है । क्योंकि जिसे प्रत्यक्ष नहीं देखा होने के लिए अष्ठांग-मार्ग का पालन करना आवहै, उसके लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। श्यक कहा गया है। क्योंकि इन नियमों के पालन "मरणमेवापवर्ग:" अर्थात् मरण ही मोक्ष है। करने से साधक दुःखों के निरोध को प्राप्त हो जाता है और बुद्धत्त्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता बौद्धदर्शन में मोक्ष बौद्धदर्शन में मोक्ष के लिए निर्वाण शब्द का इसलिए "दुक्खस्स वा अनुप्पाद निरोधपच्चयता प्रयोग किया है । जिसका अर्थ है बुझना है। अर्थात् दुक्खनिरोधंति" अर्थात् दुःख की निवृत्ति का नाम जिस साधना से समस्त कर्मास्रवों का क्षय हो जाता निरोध है, इसे ही निर्वाण कहा गया है । "निरुध्यते है, वह निर्वाण है । 'निब्बाणं परमं सुखं' निर्वाण रागद्वेषोपहतचित्तलक्षणः संसारोऽनेनेति करणेद्यजि, परम-सुखकारी है। यह "रागक्खयो, दोसक्खयो, मुक्तिरित्यर्थः” अर्थात् राग-द्वषादि से विकृत चिर मोहक्खयो, यह राग के क्षय से, द्वेष और मोह के रूपी संसार जिससे नष्ट किया जाता है, वह 'मुक्ति' क्षय से प्राप्त होता है। इस अवस्था में पहुंचकर है । या "नि क्लेशावस्था चित्तस्य निरोधः ।" अर्थात् साधक को न क्लेश होता है और न कोई नवीन चित्त की क्लेशरहित अवस्था को निरोध-निर्वाण धर्म की प्राप्ति होती है। कहते हैं। जैनदर्शन में मीक्ष-- संसार दुःखमय, दुःखों का कारण है (दुःख से । पीड़ित होकर उसके नाश करने का उपाय खोजा "बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः" निष्कर्ष रूप में सभी विचारकों के चितन करने के उपरांत यही कहा जा सकता है कि 'प्रात्म-कल्याण' का कारण ही मोक्ष है। यह मोक्ष पूर्णतया दुःख को निवृत्ति से ही प्राप्त होता है परन्तु एक बात विचारणीय यह है कि क्या दुःख की निवृत्ति ही मोक्ष है ? वास्तव में दुःख की निवृत्ति के अतिरिक्त बाह्य और प्राभ्यंतर दोनों ही तरह के प्रभावों से मुक्ति ही मोक्ष है। जन्ममरण प्रादि की समाप्ति का नाम भी मोक्ष है। यह पूर्णरूपेण रागद्वेष एवं मोह की समाप्ति पर ही संभव है । -एम० बी० कालेज उदयपुर विश्व विद्यालय, उदयपुर । (३/57) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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