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________________ अर्थात् बंध के कारणों का प्रभाव और निर्जरा लोक के प्रति ममता आदि के संयोगों से रहित होकर के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मुक्ति की ओर उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं, वे असंयमित मोक्ष है । अथवा बंधे हुए कर्मों की निर्जरा (तप जीवन की अभिलाषा नहीं करते हैं। क्योंकि वे द्वारा कर्मों को क्षय करना) हो जाने पर कर्मों को समझते हैं-इमेण चैव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेरण "प्रात्यंतिको वियोगस्तु-अत्यन्त वियोग एवं देहादे- बज्झयो" अर्थात् जिसने अपने स्वरूप को र्मोक्ष उच्यते--शरीर आदि से सम्बन्ध छूट जाने समझ लिया है, वह अपने आभ्यंतर शत्रुओं के साथ का नाम मोक्ष है। शरीर, पांचों इन्द्रियाँ, प्रायु ही युद्ध करता है। बाहर के युद्ध से कुछ भी नहीं आदि बाह्य प्राण, पुण्य, पाप, रूप, गंध, रस, स्पर्श, मिलने वाला है ? इसलिए यह कहा जाता है - फिर से शरीर ग्रहण, स्त्री-पुरुष और नपुंसकवेद, कषाय प्रादि, परिग्रह, अज्ञान एवं प्रसिद्धत्व प्रादि भावविमुत्तो मुत्तो ण य, का क्षय हो जाना ही मोक्ष है।मोक्ष के लिए निर्वाण, मुत्तो बंधवाईमित्तेण । प्रव्याबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध इय भाविऊरण उज्झसु गथं, भी कहते हैं। मभंतरं धीर । भाव.पा. 431 मुक्त कौन अर्थात् 'जो राग-द्वेष मोहादि से मुक्त है, वास्तव में वही मुक्त है, जो केवल बांधव, मित्रादि से मुक्त प्राचारांग में कहा हैं-"विमुत्ता हु ते जणा जे हैं वे मुक्त नहीं हैं । ऐसा विचार ज्ञान, दर्शन चरित्र जणा पारगामिणो" अर्थात् वास्तव में वे मुक्त पुरुष और तप से युक्त धीर-वीर श्रमण ही करता है । हैं जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पारगामी हैं। कर्म-बंधनों से मुक्त, शरीर से निरपेक्ष, द्वन्द्वरहित ऐसे मुक्त जीव अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनंतसुख ममतारहित, प्रारम्भरहित और प्रात्मलीन पुरुष और अनंतवर्य के धनी होते है । तथा लहइ निव्वाणं" निर्वाण को प्राप्त होता है । मोक्ष के भेद नाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तहा।। एयमग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गई ॥ उत्त 28/3 1. भावमोक्ष 2. और द्रव्यमोक्ष ज्ञान, दर्शन, चारित्र, एवं तप मार्ग को प्राप्त भावमोक्ष-राग-द्वेष-मोक्ष के कारणों से कर्मों हुए जीव सुगति को प्राप्त होते हैं । राग, द्वेष, मोह का आस्रव होता है और प्रास्रव से कर्मों का बंध से रहित "लोयालोयपवंचायो" लोक (संसार) के होता है । बंधे हुए कर्मों को संवर और निर्जरा सभी प्रपंचों से छूट जाते हैं । इतना ही नहीं- (तप-ध्यान) द्वारा क्षय कर दिया जाता है। तब कर्म पुद्गलों से रहित होता हुअा जीव स्व-पर का भेद"दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं विज्ञान करने लगता है। इसी कई-बंधन मुक्त एवं जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति नावखंति स्व-पर भेद-विज्ञान की अवस्था का नाम भावमोक्ष जीवियं। है। इस अवस्था में चार घातियाँ कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) का नाश हो अपितु "साधक संसार के दुःखों को जानकर, जाता है। (3/58) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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