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________________ अर्थात् बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, भावना नामक संस्कार और द्वेष इन श्रात्मा के नो विशेष गुणों का प्रत्यंत उच्छेद होना मोक्ष है । मीमांसक दर्शन में मोक्ष मीमांसक मत में भी दुःख की निवृत्ति को मोक्ष कहा गया है । शरीर इन्द्रियां और विषय बंधन के कारण हैं । इनका प्रात्यंतिक नाश होने से ही मुक्ति मिलती है । इसलिए दुःख के प्रात्यंतिक नाश होने का नाम 'मोक्ष' कहा गया है। ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार से रहित पुरुष अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाता है । वैशेषिक इन्द्रियज और योगज इन दो प्रत्यक्ष प्रमाणों को मानता है । योगज प्रत्यक्ष के द्वारा अतीन्द्रिय तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है। कहा भी है। कि ये चात्यंतयोगाभ्यासोचित धर्मातिशयाद समाधि प्राप्ता यतीन्द्रियमर्थं पश्यंति, ते वियुक्ताः ।" अर्थात् जो योगी समाधि - उपयोग लगाये बिना ही चिरकालीन तीव्र योगाभ्यास के कारण सहज ही श्रतीन्द्रिय पदार्थों को देखते जानते हैं, वे वियुक्त कहलाते हैं । योगाभ्यास से विशिष्ट शक्ति की उपलब्धि हो जाती है, जिससे दुःखों की प्रात्यंतिक निवृत्ति भी हो जाती है और प्रतीन्द्रिय तत्त्वज्ञान की उपलब्धि भी हो जाती है । प्रतीन्द्रिय पदार्थों का जो ज्ञान होता है, वह वियुक्त योगज प्रत्यक्ष है । और इसी ज्ञान से बुद्धि, सुख, दुःखादि नौ गुणों का अत्यंत उच्छेद हो जाता है । प्रतः आत्यंतिक दुःख निवृत्ति का नाम ही मोक्ष है । पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण यह जीव संसार में परिभ्रमण करता है और इन्हीं कर्मों के फल भोगने के उपरांत वेद-विहित कर्मों पर चलने से सुखदुःखादि के नाश को प्राप्त हो जाता है । इसलिए तस्मात् निःसम्बंधो निरानंदश्च मोक्षः " अर्थात् सुख दुःख के सम्बंध से रहित, निरानंद मोक्ष कहा गया है । Jain Education International श्रतः " त्रिविधस्यापि बन्धस्यात्यंतिको विलयो मोक्षः " या " प्रात्यंतिकस्तु देहोच्छेदो मोक्षः ।" श्रर्थात् देह का प्रात्यंतिक उच्छेद का नाम मोक्ष है । संसार में परिशुद्ध सुख नहीं है । इसलिए जीव संसार के बंधनों से मुक्त होने के लिए कठिन तपस्या की ओर प्रवृत्त होते हैं । कठिन तपस्या से तत्त्वज्ञान उत्पन्न हो जाता है । श्रात्मज्ञान से धर्माधर्म संस्कारों का नाश हो जाता है, जिससे जीव 'मुक्त' होता है तथा संसार में उसे कभी नहीं आना पड़ता है । वेदांत दर्शन में मोक्ष चित्तवृत्ति को वेदांत में 'अज्ञान' कहा गया है । इस ज्ञान के समाप्त होते ही जीव और ब्रह्म का एक्य हो जाने से परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है । ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार करने पर साधक अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है और दुःख से सर्वदा के लिए छुटकारा भी प्राप्त कर लेता है । वेदांत में 'ब्रह्म' को श्रानन्द-स्वरूप कहा है । इस आनंद को पाकर साधक 'आनंदमय हो जाता है । यह प्रानन्द का साक्षात्कार नित्य है । मुक्तावस्था में सभी प्रकार की उपाधियों से रहित होकर 'ब्रह्म' के आनंद को प्राप्त कर लेता है । इस आनंद की उपलब्धि प्रारब्ध कर्मों के क्षय किये बिना नहीं मिलती है । इसलिए जीव जब तक पूर्वकर्म और किये जाने वाले कर्मों का क्षय करके तत्त्वज्ञान को प्राप्त नहीं हो जाता है, तब तक मुक्त नहीं कहलाता है । अत: अज्ञान, अविद्या, माया आदि के सर्वथा छूट जाने का नाम ही मोक्ष क्षय होने एवं शरीर के नष्ट सर्वथा मुक्त होता है । 1 प्रारब्ध कर्मों का होने पर ही जीव ( 3/56 ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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