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________________ चतुर्थ खण्ड सेवाकार्य और संस्थानों से सम्बन्धित है । फिरोजाबाद तथा राजस्थान की कुछ संस्थानों के परिचय सामने आये है। सामान्य ऊहापोह भी हुआ है । संस्थायें कैसे बनें और हमारे प्रयत्न विशेष फलदायी कैसे हो? हर प्रात्म-विश्लेषक, सजग व्यक्ति के मन के इस प्रश्न को भी हमारे सम्मुख रखा गया है । ___पांचवें खण्ड में नये लेखकों की रचनायें संकलित हैं-हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में । अहिंसा, कर्मसिद्धान्त, समता आदि पर निश्चय-परक, व्यवहार-परक सुदृष्टि का, भगवान बाहुबली का इतिहास, महामस्तकाभिषेक महोत्सव, पुनीत वैयावृत्य आदि का युवा लेखकों की कलम से गंभीर विवेचन, चित्रण पढ़कर हृदय को सन्तोष होता है कि संस्कृति के भवन के भावी स्तम्भ सशक्त हैं और हमारा भय मिथ्या लगने लगता है कि भावी पीढ़ी तीर्थंकरों की इस महान संस्कृति के प्रति अन्यमनस्क है। अन्तिम खण्ड प्रांग्ल भाषा का है। इसको प्रत्येक लेख पठनीय-मननीयहै । प्रथम में डा० वर्मा साहिब ने बड़े सुलझे रूप में क्षमादि दश धर्मों की चर्चा की है। जगह-जगह ईसा के कथनों को तुलना में प्रस्तुत कर, लीक से थोड़ी हटी, परिभाषायें देकर (यथा प्रतिक्रमण की 'home coming' तथा 'मूर्छा परिग्रह' को 'The life of ignorance A the life of bondage' कहकर) आपने लेख को विशेष रोचक बना दिया है। आदरणीय बी० बी० बज साहिब तथा आर० सी० सेठी साहिब ने कर्म शरीर, तैजस शरीर की रचना के साथ व्यक्ति के विचारों भावों के समानान्तर उठते, निसृत होते सूक्ष्म पर प्रभावशाली आकार, आभा, तरंगों की थियोसाकी तथा आधुनिक विज्ञान की खोजों की चर्चा भी संक्षेप में प्रस्तुत की है। इन्हें पढ़कर हमारा विश्वास बने कि मन, वचन, काय के स्तर पर किये गये कार्य व्यर्थ नहीं जाते-अपना अच्छा बुरा भल देते ही है, कि कार्य से वाणी तथा वाणी से मन के स्तर पर किया जा रहा कार्य अधिक-अधिक प्रभावोत्पादक होता है अतः हमें अपने मन को सदैव पवित्र भावों से ही भरना है, यह जीवन में आवश्यक रूप से सही और सफल क्रांति होगी। अन्तिम लेख श्री सोमानी जी का चित्तोड़ के कीति स्तम्भ के निर्माण की तिथि के सम्बन्ध में है। । अन्त में, कहते हैं भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि जब श्रोताओं के कानों में पड़ती थी तो वे इस तरह गद्गद् होते थे मानो अमृत ही झर रहा हो । उससे संतुष्ट हो वे भूख प्यास से निवृत्त हो जाते थे । भगवान की वाणी ही इस स्मारिका में चर्चित हुई है । समवशरण की श्रुति के समान इसका पठन भी हमें शांति. सन्तोष देने वाला हो इस कामना के साथ ज्ञानचन्द बिल्टीवाला प्रधान सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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