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________________ सम्पादकीय पाठकों के सम्मुख महावीर जयन्ती स्मारिका का यह 18 वां अंक प्रस्तुत है। पूर्व के अंकों की भांति, प्राशा है, इस अंक का भी विद्वान पाठकों द्वारा समादर होगा । जहां तक हमारा सम्बन्ध है हमें सन्तोष है कि इस अंक में प्रकाशित प्रत्येक रचना स्मारिका का.गौरव बढ़ाने वाली है। इस हेतु विद्वान लेखकों को साधुवाद अर्पित करते हैं। साथ ही हम उन विद्वान महानुभावों से क्षमा याचना करना चाहते हैं जिनकी रचनायें हम स्मारिका का सीमित कलेवर निर्धारित होने से अंक में शामिल नहीं कर सके । इसका हमें अत्यन्त खेद है। गत अंक की भांति यह अंक भी खण्डों में विभाजित हैं- 1. महावीर जीवन और सिद्धान्त 2. महामस्तकाभिषेक । इतिहास, पुरातत्व और कला 3. साहित्य और संस्कृति 4. सेवा, संस्थायें, 5. नई प्रतिभा, 6. आंग्ल भाषा । प्रथम खण्ड में भगवान महावीर के जीवन और सिद्धान्तों की चर्चा है। भक्ति से आपूरित अनेक लेख और कवितायें हमारे चित्त में प्रभु का बिम्ब और उनके आदर्श गहराई से उकेरती है और हमारे में छिपे 'महावीर' से हमें आत्मसात करती है । लेखों में एक दर्द भी है, एक चुनौती भी कि आज हम महावीर से केवल नाम जाप और जय जयकार तक ही अपने को जोड़ रहे हैं--मन-वचन-काय से, कृत-कारित-अनुमोदन से, अन्दर-बाहर सर्वत्र महावीर के अनुरूप अपने को ढालकर अपना जीवन तथा समाज को कृतार्थ नहीं कर रहे हैं । द्वितीय-खण्ड इस वर्ष मनाये गये राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के महामस्तकाभिषेक महोत्सव और तत् सम्बन्धी इतिहास की झांकियां हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है । दो लेख उसमें मथुरा के जैन पुरातत्व सम्बन्धी है-एक विद्वान श्री गणेश ग्रसाद जी का तथा दूसरा जैन पुरातत्व पर जाने माने विद्वान लेखक श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी का है। तृतीय खण्ड के एकाधिक लेखों में आचार्य कुन्दकुन्द उनके मन्तव्यों, उनका प्रभाव आदि चर्चित हुए हैं । प्रसंगत: हमें 1985 में आ रही कुन्दकुन्द द्विसहस्त्राब्दि का स्मरण हो रहा है। स्मारिका ने मानों उस उत्सव का प्रारम्भ अभी से कर दिया है। कुन्दकुन्द को गहराई से समझकर शुद्ध निश्चय नय के भी पार निर्विकल्प अनुभूतियों में पहुंचना कोई एक दिन का तो कार्य नहीं है जिसे हम बाजे गाजे और जुलूस मात्र निकाल कर पूरा कर सके। उत्सव दिवस के बाजे गाजे के साथ हमारा अन्तरंग उल्लास तभी जागेगा जब हमने प्रा० कुन्दकुन्द के समयसारादि ग्रन्थों का अनवरत अभ्यास अनुभूतियां पूर्व में कर ली होगी। (ऐसा सतत् अभ्यास करने और कराने वाली एक महान् विभूति श्री कान जी स्वामी आज हमारे बीच नहीं है। स्मारिका परिवार उन्हें सादर श्रद्धांजलि सादर समर्पित करता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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