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________________ है। प्रतः निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने हैं। सत्य का सच्चा प्रकाश केवल अनाग्रही को ही वाला साधक विवाद में न पड़े। उनके अनुसार मिल सकता है। महावीर के प्रथम शिष्य गौतम का अनासक्त पुरुष के पास विवाद रूपी युद्ध के लिए जीवन स्वयं इसका एक प्रत्यक्ष साक्ष्य है। गौतम कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता । इसी प्रकार के केवलज्ञान में आखिर कौन सा तत्व बाधक भगवान महावीर ने भी आग्रह को साधना का बन रहा था । महावीर ने स्वयं इसका समाधान सम्यक् पथ नहीं बताया। वे कहते हैं कि प्राग्रह, करते हुए गौतम से कहा था-हे गौतम, तेरा मेरे मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है। जो प्रति जो ममत्व है, यही तेरे केवलज्ञान (सत्यव्यक्ति अपने मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा दर्शन) का बाधक है। महावीर की स्पष्ट घोषणा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार चक्र में थी कि सत्य का सम्पूर्ण दर्शन आग्रह के घेरे में घूमते रहते हैं । इस प्रकार भगवान् महावीर भी रहकर नहीं किया जा सकता। आग्रह बुद्धि या आग्रह वृत्ति एवं मतान्धता से जन-मानस को मुक्त दृष्टि राग सत्य को असत्य बना देता है । महावीर करना चाहते हैं। जहां बुद्ध इन विवादों से बचने की दृष्टि में सत्य का प्रकटन, आग्रह में नहीं, की सलाह दे रहे हैं, वहीं महावीर अनेकान्त' दृष्टि अनाग्रह में होता है, विरोध में नहीं समन्वय में के आधार पर इनके समन्वय की एक विधायक । होता है । सत्य का साधक अनाग्रही और वीतराग दृष्टि प्रस्तुत कर रहे हैं। होता है । महावीर एक अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि प्रस्तुत करते हैं ताकि वैचारिक असहिष्णुता महावीर का अनेकान्त सिद्धान्त विविध दार्शनिक को समाप्त किया जा सके । एकान्तवादों में समन्वय करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि में नित्यवाद - अनित्यवाद, अनेकान्त धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में द्वैतवाद, अद्वैतवाद, भेदवाद-अभेदवाद, आदि सभी सभी धर्म-साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य वस्तु स्वरूप के प्रांशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। राग, आसक्ति, अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है किन्तु पूर्ण है। जैन धर्म की साधना का लक्ष्य वीतरागता है, सत्य भी नहीं है । यदि इनको कोई असत्य बनाता तो बौद्ध धर्म का साधनालक्ष्य वीततृष्ण होना है तो वह प्रांशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लेने माना गया है। वही वेदान्त में अहं और आसक्ति का उसका आग्रह ही है। अनेकान्त, अपेक्षा भेद से से ऊपर उठना ही मानव का साध्य बताया गया इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है। लेकिन क्या एकान्त या आग्रह वैचारिक राग, है और यह बताता है कि सत्य तभी असत्य बन वैचारिक आसक्ति, वैचारिक तृष्णा अथवा वैचारिक जाता है, जबकि हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते अहं के ही रूप नहीं हैं ? और जब तक वह हैं। यदि हम अपने को आग्रह के घेरे से ऊपर उपस्थित है धार्मिक साधना के क्षेत्र में लक्ष्य की उठाकर देखें तो ही हमें सत्य के दर्शन हो सकते सिद्धि कैसे होगी ? पुनः जिन साधना पद्धतियों में 1. सुत्तनिपात 5112 2. सुत्तनिपात 4618-9 3. सयं सयं पंसंसंता गरहन्त परं वयं । जे उ तत्थ विउसन्ति संसारे ते विउस्सिया ।।-सूत्रकृतांग 11112123 1-56 ___ महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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