SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा के आदर्श को स्वीकार किया गया उनके लिए आग्रह या एकान्त वैचारिक हिंसा का प्रतीक भी बन जाता है । एक और साधना के वैयक्तिक पहलू की दृष्टि से मताग्रह वैचारिक आसक्ति या राग का ही रूप है तो दूसरी ओर साधना के सामाजिक पहलू की दृष्टि से वह वैचारिक हिंसा है । वैचारिक प्रासक्ति और वैचारिक हिंसा से मुक्ति के लिए धार्मिक क्षेत्र में अनाग्रह और अनेकान्त की साधना अपेक्षित है । वस्तुतः धर्म का आविर्भाव मानव जाति में शान्ति और सहयोग के विस्तार के लिए हुआ था । धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था लेकिन आज वही धर्म मनुष्य में विभेद की दीवारें खींच रहा है। धार्मिक मनुष्य मतान्धता में हिंसा, संघर्ष, छल, छम, अन्याय, अत्याचार क्या नहीं हो रहा है ? क्या वस्तुतः . इसका कारण धर्म हो सकता है ? इसका उत्तर निश्चित रूप से 'हां' में नहीं दिया जा सकता । यथार्थ में 'धर्म' नहीं किन्तु धर्म का आवरण डाल कर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार ही यह सब करवाता रहा है । यह धर्म का नकाब डा धर्म है 1 मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेकान्तिक शैली से यह होगा कि धर्म एक भी है और अनेक भी, साध्यात्मक धर्म या धर्मो का साध्य एक है जबकि साधनात्मक धर्म अनेक हैं । साध्य रूप में धर्मों की एकता और साधन रूप से अनेकता को ही यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है । सभी धर्मों का साध्य है, समत्व लाभ (समाधि) अर्थात् प्रांतरिक तथा बाह्य शान्ति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग-द्वेष और अस्मिता (अहंकार) का निराकरण । लेकिन राग-द्व ेष और अस्मिता के निराकरण के उपाय क्या हों ? यहीं विचार भेद प्रारम्भ होता है लेकिन यह विचार महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International भेद विरोध का आधार नहीं बन सकता । एक ही साध्य की ओर उन्मुख होने से परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही केन्द्र से योजित होने वाली परिधि से खिंची हुई विभिन्न रेखाओं में पारस्परिक विरोध प्रतीत अवश्य होता है किन्तु वह यथार्थ में होता नहीं है । क्योंकि केन्द्र से संयुक्त प्रत्येक रेखा में एक दूसरे को काटने की क्षमता नहीं होती है किन्तु जैसे ही वह केन्द्र का परित्याग करती है वह दूसरी रेखाओं को अवश्य ही काटती है । साध्य रूपी एकता में ही साधन रूपी धर्मों की अनेकता स्थित है । अतः यदि धर्मों का साध्य एक है तो उनमें विरोध कैसा ? अनेकांत, धर्मों की साध्य परक मूलभूत एकता और सांधन परक अनेकता को इंगित करता है । विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की तात्कालिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धान्तों एवं साधना के बाह्य नियमों का प्रतिपादन किया । देश काल-गत परिस्थितियों और साधक की साधना की क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म साधना के बाह्य रूपों में भिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ भी। किन्तु मनुष्य की अपने धर्माचार्य के प्रति ममता (रागात्मकता) और उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना पद्धति को ही एक मात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य किया । फलस्वरूप विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों और उनके बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य का प्रारम्भ हुआ । मुनिश्री नेमीचन्द्रजी ने धर्म सम्प्रदायों के उद्भव की एक सजीव व्याख्या प्रस्तुत की है। वे लिखते हैं- 'मनुष्य स्वभाव बड़ा विचित्र है । उसके अहं को जरा सी चोट लगते ही वह अपना अखाड़ा अलग बनाने को तैयार हो जाता है । यद्यपि वैयक्तिक अहं एवं सम्प्रदायों के निर्माण का एक काररण अवश्य 1-57 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy