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________________ 'समत्व' में इन्द्रियां अपना कार्य करती हैं के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। कहीं लेकिन उनमें भोगासक्ति नहीं होती, न इन्द्रियों के धर्म के नाम पर तो कहीं राजनैतिक वाद के नाम पर विषयों की अनुभूति राग और द्वेष को जन्म देती एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है । है। चिन्तन तो होता है, लेकिन उसमें पक्ष, वाद धार्मिक एवं राजनैतिक साम्प्रदायिकता जनता के या मतों का निर्माण नहीं होता। मन अपना कार्य मानस को उन्मादी बना रही है। प्रत्येक धर्मवाद लो करता है लेकिन वह चेतन के सम्मुख जिसे या राजनैतिकवाद अपनी सत्यता का दावा कर प्रस्तुत करता है उसे अपनी प्रोर से रंगीन नहीं रहा है और दूसरे को भ्रान्त बता रहा है। इस बनाता। प्रात्मा विशुद्ध द्रष्टा होता है। समत्व धार्मिक एवं राजनैतिक उन्माद एवं असहिष्णुता योग की साधना व्यक्ति को राग-द्वेष के द्वन्द्व से के कारण मानव मानव के रक्त का प्यासा बना ऊपर उठाकर निर्द्वन्द्व वीतरागता की दिशा में ले हुआ है। ग्याज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का जाती है। वैयक्तिक जीवन में समत्वयोग की वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है । एक ओर साधना की उपलब्धि है-निविकार, निर्विचार, प्रत्येक राष्ट्र की राजनैतिक पार्टियां या धार्मिक निर्वयक्तिक चेतना। यही प्रपंचशून्यता है ; यह सम्प्रदाय उसके आन्तरिक वातावरण को विक्षुब्ध निर्वाण है ; इसे ही ब्रह्म भाव, ब्राह्मी स्थिति या एवं जनता के पारस्परिक सम्बन्धों को तनावपूर्ण वीतरागावस्था कहा जाता है। यद्यपि आन्तरिक बनाये हुए हैं तो दूसरी ओर राष्ट्र अपने को किसी समत्व, समत्वयोग का प्रमुख तत्व है ; फिर भी एक निष्ठा से सम्बन्ध का गुट बना रहे हैं। और इस अान्तरिक समत्व के कारण उसके प्राचार और इस प्रकार विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विचार सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं। विक्षुब्ध बना रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं यह सामाजिक जीवन की संस्थापना समत्वयोग का वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक एवं पारिवारिक साध्य तो है लेकिन उसकी सिद्धि वैयक्तिक समत्व जीवन को विषाक्त बना रही है। पुरानी और नई पर नहीं वरन समाज के सभी सदस्यों के सामहिक पीढी के वैचारिक विरोध के कारण ग्राज समाज प्रयत्नों पर निर्भर है। आज समत्व योग की और परिवार का वातावरण भी प्रशान्त और सामूहिक साधना की आवश्यकता है। इसी सामू- कलहपूर्ण हो रहा है। वैचारिक अाग्रह और हिक साधना से हम संघर्ष एवं शोषण रहित एक मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की सहिष्णु समाज का निर्माण कर सकते हैं। इस आवश्यकता है जो लोगों को अाग्रह और मतान्धता सम्बन्ध में जैनधर्म के तीन सिद्धान्त अनेकांत, से ऊपर उठने के लिए दिशा-निर्देश दे सके । भगवान् अपरिग्रह और अहिंसा हमारा उचित मार्गदर्शन कर बुद्ध और भगवान् महावीर दो ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने मानव समाज को वैचारिक, आर्थिक और सामा- इस वैचारिक असहिष्णुता की विध्वंसकारी शक्ति को जिक संघर्षों से उबार सकते हैं। आगे हम इन्हीं समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया था। बातों पर थोड़ा गम्भीरता से विचार करेंगे। भगवान बद्ध ने इस प्राग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए विवाद पराङ मुखता को अपनाया। वैचारिक सहिष्णुता का प्राधार-अनेकान्त दृष्टि सूत्त-निपात में वे कहते हैं कि मैं विवाद के दो फल वर्तमान युग में वैचारिक संघर्ष अपनी चरम बताता हूं। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है सीमा पर है । सिद्धान्तों के नाम पर मनुष्य 'मनुष्य और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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