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________________ की पूर्ति करनेवाले या कामनाओं की वर्षा करने मिलता है । सारी आर्य जाति में कम या अधिक बाले के अर्थ में। ऋग्वेद में दो जगह परमात्मा के प्रमाण में देव के रूप में ऋषभदेव की मान्यता रूप में उनका उल्लेख है। रूद्र के रूप में भी कति- रही है। पय स्थलों पर वर्णन है। इसलिये शिव या रुद्र के रूप में ऋषभ को मानने और रुद्र या शिव को जैनियों में ऋषभदेव की जटायों का वर्णन ऋषभ के रूप में मानने की बात को समर्थन मिलता मिलता है। उसी प्रकार वेदों में केशी व वातरशना है। अर्हत् ऋषभ को वैदिक साहित्य में प्रशस्त भी मुनि, भागवत् के वातरशना श्रमण और ऋषि और कहा गया है। जैनियों के केशरियानाथ, ऋषभ तीर्थंकर और उनका निर्ग्रन्थ रूप इनमें साम्य दिखाई पड़ता है। वैदिक जैनागम ऋषभदेव को धर्ममार्ग का आदि प्रव- ऋचाओं में एक ही स्थान पर ऋषभ व केशी का तक मानते हैं तो भागवत् में ऋषभदेव के अवतार उल्लेख है जिससे इस अनुमान को पुष्टि मिलती है का उद्देश्य वातरशना, श्रमण, ऋषियों के धर्म को कि वातरशना मुनियों; निर्ग्रन्थ साधुओं तथा मुनियों प्रगट करना कहा गया है । के नायक केशी मुनि ऋषभदेव ही हैं। इससे जैन . श्रमण और ब्राह्मण दोनों ही धारामों में वृषभ- धर्म की प्राचीनता पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । देव का समान आदर है। दोनों ही उन्हें पूज्य राष्ट्रसन्त विनोबाजी कहते हैं कि ऋग्वेद में मानते है। वे जैनों के प्रादि तीर्थकर हैं तो वैदिकों के भगवान की प्रार्थना में एक जगह लिखा है “अर्हत विष्णु के अवतार और शिव-पुराण में भी शिव के इदं दयसे विश्व अभवम" हे अर्हत, तुम इस तुच्छ 24 योगावतारों में उनकी गणना है। दुनियां पर दया करते हो । इसमें 'अर्हत' और दया' प्राचीन साहित्य के अध्ययन से पता चलता है दोनों जैनों के प्यारे शब्द हैं। मेरी तो मान्यता है कि पाई धर्म के उपासक परिण और व्रात्य थे। कि जितना हिन्दू धर्म प्राचीन है शायद उतना ही जो अत्यन्त समृद्ध व्यापारी तथा संपन्न थे । वे केवल जैनधर्म भी प्राचीन है। संपन्न ही नहीं थे, ज्ञान-विज्ञान में भी काफी उन्नत ऋषभदेव भारतीय जैन, वैदिक, हिन्दू या योग थे । वे देश-विदेशों में व्यापार करते थे और अरब परम्परा के ही उपास्यदेव हों सो बात नहीं है पर और अफ्रीका तक जाते थे। संभव है ये परिण ही उनका प्रभाव भारत के बाहर भी होना चाहिए आगे चलकर वरिणा बन गये हों। क्योंकि सायप्रस में हई खदाई में ऋषभदेव की आर्हत सन्तों या अर्हतों के उपासक थे। व्रात्य कांस्यमुर्ति प्राप्त हुई है । लेफ्टीनेन्ट कर्नल विलफोर्ड को परिभ्रमण करनेवाला साधू भी कहा गया है। ने एशियाटिक रिसर्चेज ग्रंथ 3 में लिखा है कि भारऔर वे व्रत नियम लेते थे इसलिये भी व्रात्य कहलाते तीय व इजिप्ट का प्राचीन काल में सम्पर्क था। थे। वे आत्मा को ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे और उन्होंने नये शोधों की पार्श्वभूमि में हिन्दू संस्कृति आत्मा ही पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है ऐसी की भौगोलिक क्षेत्र की जांच की अत्यन्त आवश्यकता उनकी निष्ठा थी। बताई है। ऋग्वेद के वातरशना मुनि, भागवत् के वातर- शना ऋषि और जैनियों के अधिनायक ऋषभदेव का वर्णन जैन शास्त्रों व भागवत् में लगभग एकसा ही शोधों से पता चलता है कि इजिप्ट, सुमेरियन. आदि संस्कृति पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव था। उन प्राचीन संस्कृतियों का अध्ययन करने पर पता महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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