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________________ चलता है कि वह संस्कृति कुछ अंशों में जैनों से तीर्थङ्कर नेमिनाथ ने विवाह के निमित्त एकत्र मिलती-जुलती है। किये पशुओं की हत्या न हो इसलिये करुणा से द्रवित होकर विवाह का विचार त्याग निर्ग्रन्थ मुनि प्राचीन जैन संस्कृति प्राध्यात्म, संयम, योग, बन कर वन की ओर प्रयाण किया। जैन शास्त्रों समता, पुनर्जन्म, कैवल्य आदि की प्रधानता थी ने उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण का गुरु कहा और बौद्ध जिसका प्रभाव वैदिक संस्कृति पर पड़ा। इहलोक विद्वान् स्व० धर्मानन्दजी कौसाम्बी कहते हैं कि के सुखों को प्राधान्य देने वाली संस्कृति ने श्रमण नेमिनाथ कृष्ण के गुरु आंगिरस थे। अरिष्टनेमि संस्कृति के विचारों को अपनाया । यह समन्वय काल यादव कुल के थे और श्रीकृष्ण के कुटुम्बीजन थे । ऋषभदेव के समय का होना चाहिये जिससे ऋषभदेव दोनों संस्कृतियों के पूज्य व आदरणीय बने । श्रीकृष्ण को प्राचीन वैदिक काल में इसलिये प्रमुख स्थान नहीं दिया था क्योंकि वे वैदिकों के देव प्राचीनकाल में जैन संस्कृति निवृत्ति प्रधान नहीं। इन्द्र के उपासक नहीं थे बल्कि इन्द्रपूजा के विरोधी किन्तु प्रवृत्ति प्रधान होनी चाहिये ऐसा पंडित थे। लेकिन भगवान् श्रीकृष्ण समन्वय के प्रबल सुखलालजी का मानना है। वे कहते हैं कि जैन समर्थक थे और उस समय के महान व्यक्ति थे जिससे धर्म के मूल उद्गम में निवृत्ति स्वरूप को नहीं, पर वैदिक संस्कृति को भी उन्हें उच्च स्थान देना पड़ा । प्रवृत्तिप्रधान स्वरूप को ही स्थान था और उसकी और उन्हें अवतार माना। जैन संस्कृति भी उन्हें पुष्टि इस बात से होती है कि सम्पूर्ण जैन परम्परा अपना भावी तीर्थंकर मानती है। वे श्रमण और भगवान ऋषभदेव को वर्तमान युग के निर्माता आदि ब्राह्मण दोनों ही संस्कृतियों में आदरणीय थे। उस पुरुष मानती है। जिन्होंने शस्त्रविद्या, कृषि और काल में वेदव्यास, पांगिरस, विदुर, भीष्म आदि वाणिज्य की शिक्षा दी। वे कर्मयोगी तथा पूर्ण अनेक चिन्तक, साधक, विद्वान् व महापुरुष हो गये । पुरुष थे। उसे प्रवृत्ति प्रधान व निवृत्ति प्रधान कहने की अपेक्षा अनासक्ति प्रधान कहना अधिक उपयुक्त सचमुच वह काल आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वहोगा। पूर्ण था। इसे स्वर्णयुग माना जा सकता है। विद्या, समन्वय के बाद दोनों ही संस्कृतियां साथ विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति का भी उच्च साथ चल रही थीं। उनमें विशेष अन्तर नहीं रह विकास हुया था। जब समाज में संघर्ष और गया था। तब भारतीय संस्कृति पर निवृत्ति और वाद-विवाद नहीं होते, प्रजा अपनी समस्याएं सुलझा अहिंसा की प्रधानता कब से और कैसे प्राई ? इसे कर सुखपूर्वक रहती है तब सांस्कृतिक विकास भी जानना आवश्यक है। होता है और समृद्धि भी बढ़ती है। महाभारत काल में लोग समृद्ध और सुसंस्कृत थे। विविध कलानों भारतीय संस्कृति में महाभारत का काल सभी की भी उन्नति हुई थी। मयासुर द्वारा पाण्डवों के दृष्टियों से श्रेष्ठ माना जायगा। इस समय में लिये ऐसा कलापूर्ण भवन बनाया गया कि जहां श्रमण और ब्राह्मण दोनों ही परम्परा एक दूसरे जल का एक बिन्दु न हो कर भी जलाशय दिखाई के पूरक के रूप में काम कर रही थीं। वह सम- दे और सूखी जमीन दिखाई दे वहां पुष्करिणी हो । म्वय का काल था। आध्यात्मिक दृष्टि से अनेक स्थापत्य कला की तरह शस्त्र-अस्त्रों में भी काफी ऋषि-मुनि इस काल में हुये। भगवान् कृष्ण और प्रगति हुई थी यह महाभारत के युद्ध में स्पष्ट जैनियों के तीर्थकर नेमिनाथ उस काल में हुये। दिखाई देता है। 1-38 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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