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________________ । शास्त्री ने चिन्तन के नये चरण में लिखा है कि " साध्या ने सरस्वती व सिन्धु के संगम पर विज्ञान व भुवन स्थापित कर सूर्य का निर्माण किया था । विज्ञान भवन में बैठकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार किया था । आज की वैज्ञानिक खोजों से भी यह प्रतीति श्राज हो रही है श्रहंतों का कर्म में विश्वास था । वे मुख्य रूप से क्षत्रिय थे । राजन तिक कार्यों के साथ-साथ उनमें अध्यात्म में रुचि थी। वे 'अर्हत' के उपासक थे। उनके उपासना स्थल भी पृथक् थे जिसकी पुष्टि श्रीमद्भागवत्, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, स्कन्दपुराण आदि से होती है जिनमें जैन धर्म की उत्पत्ति के विषय में अनेक आख्यान उपलब्ध हैं । प्रात् धर्म जिस परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है, वही वेदों, उपनिषद, जैनागम, महाभारत और पुराण साहित्य में कुछ हेर-फेर के साथ स्पष्ट दिखाई देता है | तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के समय तक जैन धर्म के लिये "आर्हत्" शब्द ही प्रचलित था । " जैन शास्त्रों में भी यह लिखा पाया जाता है कि प्रत्येक तीर्थङ्कर के तीर्थ में देश, काल, एवं परिस्थिति के अनुसार धर्म के प्रचार में परिवर्तन होता है । जैसाकि तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में चातुर्याम वाला धर्म था । उसे भगवान् महावीर ने पंच महाव्रत के रूप में विकसित किया । मूल में आर्हत् धर्म अहिंसा व समता प्रधान था । और वह कर्म प्रधान और निवृत्तिमूलक था । वैदिक संस्कृति प्रवृत्तिमूलक और वर्तमान जीवन को कैसे सुखपूर्ण बनाया जाय इन विचारों की तथा यज्ञप्रधान थी । किन्तु इन दोनों संस्कृतियों में आगे चलकर समन्वय हुआ। यज्ञ में पशुहिंसा हीन समझी जाने लगी । यह काल उपनिषद व महाभारत का था । वैसेात्र वैदिक संस्कृति दोनों ही ऋषभदेव को आदरणीय एवं पूज्य मानती हैं । समन्वय के कारण ही ऋषभदेव को ब्राह्मणों ने अपने 24 अवतारों में स्थान दिया है। मोहन जोदड़ों की 1-36 Jain Education International खुदाई से लगता है कि ऋषभदेव आर्यों के श्रागमन के पहले हुये थे क्योंकि खुदाई में कायोत्सर्ग ध्यान मुद्राएं मिली हैं जिनका प्रतीक चिह्न बैल था । ऋषभदेव की भांति ही शंकर का चिन्ह भी बैल था । ऋषभ और शंकर दोनों ही योग को महत्व देते थे, दोनों निवृत्ति प्रधान भी थे और यज्ञों के विरोधी थे । अध्यात्म, सादगी, संयम और पुनजन्म को माननेवाले थे। कई विद्वानों ने इन दोनों को एक बताने की भी कोशिश की है । वे एक हों या अलग-अलग किन्तु दोनों विचारधाराएं निवृत्तिप्रधान थी इसमें दो राय नहीं रही है । वैदिक विचार पद्धति से उनकी विचारधारा भिन्न थी । कुल मिलाकर भारतीय संस्कृति, दर्शन और अध्यात्म पर निवृत्ति का प्रभाव ही अधिक दिखाई देता है । भारत की प्राग्वैदिक संस्कृति ने वैदिक संस्कृति के चारों ओर अपना विशाल जाल फैला दिया है । वैदिक और आत् संस्कृति में समन्वय में भगवान् श्री कृष्ण का योगदान महत्वपूर्ण है । गीता, महाभारत, उपनिषद और भागवत में दोनों संस्कृतियों का समन्वय स्पष्ट परिलिक्षित होता है । सम्भव है महाभारत की हिंसा और संहार ने भारतीय चिन्तकों को हिंसा के दुष्परिणामों से परिचित कराया और उनका झुकाव अहिंसा की ओर हुआ हो । इतिहासकार मानते हैं कि महाभारत तक का प्रवृत्तिमार्गी दृष्टिकोण और सुख प्राप्ति में उत्साह अक्षुण्ण रहा। बाद में हिंसा के प्रति आकर्षण बढ़ा और वैदिक तथा ब्राह्मण भी 'यज्ञ में होनेवाली हिंसा धर्म नहीं हो सकती' ऐसा मानने लग गये थे । वैसे तो समन्वय का सूत्रपात ऋग्वेद से ही हो. गया था किन्तु उसका पूर्ण विकास मिलता है उपनिषद और महाभारतकाल में। वृषभ और ऋषभ शब्द का वेदों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है । मेघ, बैल, साँड और अग्नि के रूप में उनका उल्लेख मिलता है । तो कई स्थानों पर कामनाओं महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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