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________________ विरुद्ध धर्म तथा अस्तित्व नास्तित्व जैसी परस्पर की संसार अवस्था का छेद करने के लिए केवल शुद्ध विरुद्ध सापेक्ष शक्तियां रहती हैं। निर्मल आत्मा निश्चय नय का आलम्बन लेना चाहिए। व्यवहार कही जाने वाली तद्रूप-अतद्रूप, एकानेकात्मक या वहां गौण हो जाता है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरी सदसदात्मक अथवा नित्यानित्यात्मक स्वभाव वाली कहते हैं कि स्याद्वाद की मुद्रा से मुद्रित अनेकान्त है । यथार्थ में व्यवहार तथा निश्चयनय परस्पर में इन दोनों नयों का विरोध समाप्त हो जाता विरुद्ध नहीं हैं, किन्तु उनको सर्वथा एकान्त दृष्टि है । जब तक पर्यायनिरपेक्ष द्रव्य और द्रव्यनिरपेक्ष से मानने पर विरोधी जान पड़ते हैं। प्राचार्य पर्याय नहीं है, तब तक कोई भी नय हो, वह समन्तभद्र का कथन है कि सत्-असत्, नित्य-अनित्य शुद्ध नहीं हो सकता। मूल में ये दो ही नय माने एक-अनेक, वक्तव्य-प्रवक्तव्य ये परस्पर विपक्षी हैं। गए हैं। इनमें से किसी एक के बिना दूसरे का इनको यदि सर्वथा एकान्त दृष्टि से माना जाए, तो सद्भाव नहीं बन सकता। ये भिन्न-भिन्न सत्रूप ये एक दूसरे के विरुद्ध हो जाते हैं; परन्तु कथंचित् द्रव्य के लक्षण नहीं कहे गए हैं। ये दोनों ही रूप में स्वीकार करने पर ये एक दूसरे के परक नय परस्पर निरपेक्ष अवस्था में मिथ्या-दृष्टि एवं पोषक बन जाते है । तत्त्व दो प्रकार से बताये गए है । जब ये ही नय सापेक्ष हो व्यवस्थित है—भावार्थवान् होने से द्रव्य रूप है कर अपने-अपने विषय का प्रतिपादन करते हैं, और व्यवहारवान होने से पर्याय रूप है। भगवान् तब सम्यकदृष्टि कहे जाते हैं । निरपेक्ष अवस्था में महावीर के जिनशासन में द्रव्य और पर्याय दोनों ये नय अपने-अपने पक्ष का पोषण करते हैं इसलिए असर्वथा रूप से भिन्न, अभिन्न और भिन्नाभिन्न माने मिथ्या कहे जाते हैं; किन्तु एक दूसरे के विषय गए हैं। ये सर्वथा विरुद्ध नहीं हैं। निश्चय और का निराकरण न करते हुए सापेक्ष अवस्था में व्यवहार इन दोनों में से किसी एक का पाश्रय केवल अपने विषय के पोषक होते हैं। भगवान् लेने पर मिथ्या एकान्त हो जाता है। इसलिए न महावीर की यही जीवन-दृष्टि थी। व्यवहार सर्वथा हेय है और न निश्चय । निश्चय साध्य है और व्यवहार उसका साधन है । व्यवहार वैज्ञानिकता नय से तीर्थ की और निश्चय नय से तीर्थफल की सिद्धि उपलब्ध हो जाती है । व्यवहार नय के बिना भगवान् महावीर की परम्परा कोई अन्धनिश्चय नय की सिद्धि कदापि नहीं होती । जीव विश्वास या रूढ़ि नहीं है। वह प्राणी मात्र को 1. सदनकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च यै नयाः । ___ सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते ।। प्राचार्य समन्तभद्र 2. न द्रव्य-पर्याय पृथग्व्यवस्था द्वै यात्म्यमैकार्पणया विरुद्धम् । धर्मी च धर्मश्च मिथस्त्रिधेमो न सर्वथा तेऽमिमतौ विरुद्धौ ।। युक्त्यनुशासन, 47 3. णो ववहारेण विणा णिच्छयसिद्धि कयावि णिट्ठिा। साहणहेउ जम्हा तस्स य सो भरिणय ववहारो ।। 4. 'उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाके जिनवचसि रमन्ते.' 5. तम्हा सव्वे बि गया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्ण णिस्सिया उण हवंति सम्मतसम्भावा ।। सन्मतिसूत्र, 1, 21 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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