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________________ उस मुक्ति की राह दिखाती है, जिसमें पूर्ण रूप सुदूरपूर्व एशिया में देश-देशान्तरों में प्राचीनकाल से स्वाधीनता तथा आत्ममुक्ति का सन्देश निहित में हो चुका था। ग्रीक के पेथागोरस न केवल है । विज्ञान जिस प्रकार कार्य-कारण सिद्धान्त पर गणितविद्या से, वरन् जैन सिद्धान्त व आचारआधारित है, उसी प्रकार से जैन धर्म भी एक विचार से बहुत प्रभावित थे। चीन में जो चौथी आध्यात्मिक विज्ञान के आधार पर प्रचलित है। शताब्दी ईसा-पूर्व गणितीय पद्धति का प्रचलन संसार का कारण और उससे मुक्त होने का उपाय था, वह जैन गणित शास्त्र से बहुत कुछ साम्य वैज्ञानिक रासायनिक की भांति कर्म-सिद्धान्त के रखती है। जैनों का अपना समुन्नत गणितशास्त्र अनुसार विवेचित हैं । विज्ञान में जिसे कार्य-कारण रहा है। जैन आचार्यों ने अपने दर्शनशास्त्र को मात्र कहा गया है, उसे ही शास्त्र की भाषा में गणितीय पद्धति पर समझाने के लिए गणितशास्त्र निमित-नैमित्तिक सम्बन्ध कहा जाता है। संसार को जन्म दिया। इसके लिए उन्होंने प्रतीकों तथा बनने का कारण है और संसार मिटने का भी चिह्नों का भी उपयोग किया है। तुलनात्मक कारण है। जीव और कर्म का सम्बन्ध सहज ही अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि जैन प्राचार्यों निमित्त-नैमितिक है। यदि इस सम्बन्ध को कोई द्वारा प्रतिपादित गणित-सिद्धान्तों को देश-देशांतरों बनाने वाला हो, तो बिगाड़ने वाला भी चाहिए। में भलीभांति अपनाया गया है। ये सिद्धान्त चीन परन्तु न तो कोई बनाता है और न कोई बिगाड़ में भी पहुंचे और वहां पर एक पद्धति को जन्म सकता है। यह सब पूर्व संस्कारों तथा प्राकृतिक दिया । षट्खण्डागम के तुलनात्मक अध्ययस से यह सम्बन्धों से बनता-बिगड़ता रहता है। एक बार सिद्ध हो चुका है। जंबूद्वीपपण्णति, चंदपण्णति सम्बन्ध मिट जाने पर फिर कोई बना नहीं सकता। और सूर्यपणाति के अध्ययन से भी यह प्रमाणित प्रो० ए० चक्रवर्ती के शब्दों में जैनदर्शन स्पष्टतया हो चुका है। काल-विभाग तथा कालगणना का यथार्थवादी है। अतः यह आकाश तथा काल से वैज्ञानिक क्रम भी इन ग्रन्थों में वरिणत है। आर्यभट्ट युक्त सभी वस्तुओं को वास्तविक मानता है। जैन को गणित एवं ज्योतिष का प्रथम भारतीय विद्वान् दार्शनिकों ने काल को क्षणों की राशि रूप कहा है, माना जाता है किन्तु उनके पूर्व सूर्यप्रज्ञप्ति (ई० जिन्हें काल-परमाणु कहते है। जैन प्राचार्यों ने पू० 365), चन्द्रप्रज्ञप्ति (ई० पू० 365) और अाकाश, काल और अनन्त प्रचय के विरुद्ध उठायी ज्योतिषकाण्ड आदि में अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का गई अनेक शंकानों के उत्तर में गणितीय पद्धति को विवेचन मिलता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से समुन्नत किया था, जिसका समर्थन आधुनिक गणित स्पष्ट हो जाता है कि अयन, मलमास, नक्षत्रों की के सिद्धान्त करते हैं और जिसका प्रचार रसल श्रेणियां, सौरमास, चन्द्रमास आदि का विशद और हवाईट हेड जैसे महान . गणितज्ञों ने किया। विवेचन हो चुका था। इन ग्रन्थों में संस्थानों के है । भारतीय गणित विद्या का प्रचार तथा प्रसार स्वरूप, नाम, अक्षर संकेतों द्वारा संस्थाओं की 1. द्रष्टव्य है, बी० बी० दत्त : द जैन स्कूल प्राव मेथेमेटिक्स, बुलेटिन आव कलकत्ता मैथेमैटिकल सोसायटी, जिल्द 21,1929, पृ० 115-145 तथा मुकुट बिहारी अग्रवाल : गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, (शोधप्रबन्ध), आगरा वि० वि० 1972 2. लक्ष्मीचन्द जैन : जैन स्कूल प्राव मेथेमै टिक्स, पृ० 209 (कन्ट्रीब्यूशन प्राव जैनिज्म टु इण्डियन कल्चर) 3. डॉ० श्याम शास्त्री : वेदांग ज्योतिष की भूमिका, पृ० 1-26 1-28 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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