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________________ जीव, अजीव श्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- इन सात तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धा हो जाने को सम्यक्दर्शन कहते हैं । सम्यक्दर्शन की ओर उन्मुख व्यक्ति का श्राचरण भी उत्तरोत्तर निर्मल तथा उन्नत होता जाता है । 'सम्यक्दर्शन' ही मोक्ष प्राप्ति की पहली सीढ़ी है । कर्म 8 प्रकार के बताए गये हैं 1. ज्ञानावरण कर्म :- आत्मा की ज्ञान शक्ति को ढके रहना है। 2. दर्शनावरण कर्म :- दर्शन शक्ति (सामान्य बोध) को प्रकट नहीं होने देता । 3. वेदनीय कर्म : सुख-दुख का अनुभव कराते हैं । इनके दो प्रकार हैं। सुखानुभूति कराने वाले सातावेदनीय तथा दुःखानुभूति कराने वाले को सातावेदनीय कहते हैं । 4. मोहनीय कर्म - मोह उत्पन्न करता है । इसके भी दो भेद हैं -- (1) दर्शन मोहनीय :-तत्व दृष्टि को प्रावृत्त करता है ( 2 ) चारित्र मोहनीय : सम्यकुचारित्र के पालन में अवरोधक है । -* 5. आयु कर्म : - - इससे श्रायु निश्चित होती है । 6. नाम कर्म : अच्छा या बुरा शरीर, रूप, स्वरादि तथा यश अथवा अपयश में कारण होता है । 7. गोत्र कर्म : ऊँच या नीच वृत्ति के कुलों में जन्म होने में कारण होता है । 8. अन्तराय कर्म : - दान लाभ, भोग-उपभोग आदि में विघ्नकारक होता है । ऊपर बताये हुये कर्मों के बंध होने के 4 भेद हैं * 1-8 Jain Education International (1) प्रकृति बंध :- प्रकृति का अर्थ है स्वभाव | अर्थात् उपर्युक्त 8 प्रकार के कार्यों में किस प्रकृति या स्वभाव के कर्म का बंध हुआ । अथवा उस बंध से क्या हानि होगी । (2) स्थिति बंध :- इसके अनुसार यह निर्धारित होता है कि अमुक कर्म जीव के साथ कितने समय तक संयुक्त रहेंगे । अर्थात् काल मर्यादा का निर्णय ही स्थिति बंध है । (3) अनुभाग बंध :- कर्म कितना सामर्थ्यवाद या शक्तिशाली है । कभी इसकी शक्ति तीव्र विष के समान हो सकती है तो कभी हल्की मदिरा के समान । यह तीव्र मंद सामर्थ्य अनुभाग बंध है । ( 4 ) प्रदेश बंध :- कर्म रूप में परिणत होने वाले पुद्गलों का अपने स्वभाव के अनुसार आत्मा के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में विभक्त हो जाना ही प्रदेश बंध है । 2. अपरिग्रहः - विश्व में प्रशांति का एक बहुत बड़ा कारण भोगोपभोग की तीव्र लालसा तथा अधिकाधिक संचय की वृत्ति है । उत्पादन की एक सीमा है परन्तु भोगेच्छा असीम है । वास्तव में मानव की असीम इच्छाओं और तृष्णा की विभीषिका ही परस्पर कलह तथा संघर्ष का कारण बनती है । हमने सुख बाह्य वस्तुनों में मान लिया है और हमारी विकृत मनोदशा इस भोग प्रधान विश्व में चारों और फैली हुई परिस्थितियों के कारण और भी वेग से भोगोपभोग की प्रोर दौड़ती है । भोगों की प्राप्ति के लिए हमें दूसरों से संघर्ष की स्थिति में रहने तथा भोग्य वस्तु की निरंतर चिंता करने को बाध्य होना पड़ता है । उससे व्याकुलता बढ़ती है और निराकुलता जो कि वास्तविक सुख है हमसे दूर होती जाती है । उदा-हरण के लिए मान लीजिए हमने कोई भी विला - सिता की वस्तु किसी न किसी प्रकार धन संचय महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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