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________________ आकिंचन (शरीरादि से ममत्व न रखना) तथा बद्ध होने के कारण आवागमन के चक्र में फंसी ब्रह्मचर्य का भी अभ्यास सुख-शांति की वृद्धि में हुई चार गतियों-देव, मनुष्य, तिर्यंच (मनुष्येतर सहायक होता है। प्राणी) तथा नरक में भ्रमण कर रही है। शुभ कार्यों से प्राणी उच्च गतियों को तथा अशुभ कार्यों 3. आचरण के लिए-मुख्य रूप से पांच 4 से मन के भावों के अनुसार नीच गतियों को पापों से बचने, तथा सात व्यसनों को त्यागने का मरणोपरांत प्राप्त होता है। शुभ-अशुभ दोनों उपदेश दिया। प्रकार के भावों से भी ऊपर उठकर जब प्राणी - (1) पांच पाप---हिंसा (दूसरे को पीड़ा की आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में रमण करने पहुंचाना), झूठ, चोरी, कुशील (अब्रह्मचर्य) तथा लगती है तभी उसे शाश्वत मोक्ष पद सम्भव है परिग्रह (आवश्यकता से अधिक वस्तुएं रखना) जहां उसे अनन्त चतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख) की प्राप्ति (2) सप्त व्यसन-वैसे तो व्यसन (किसी होती है। कार्य को बार-बार करने की आदत) अनेक हैं । यह संसार अनंतानंत कार्मारण-वर्गणाओं (कर्म वे अच्छे या बूरे हो सकते हैं। जैसे विद्या-व्यसनी रूप में परिवर्तित हो सकने की योग्यता वाले होना अच्छा है परन्तु बुरे अर्थ में सात प्रमुख पुद्गल-अणुओं) से भरा है। आत्मा और कर्म व्यसनों का निषेध विशेष रूप से किया : का अनादि सम्बन्ध है। कर्म से ही आत्मा का बन्ध होता है। मन की प्रवृत्ति के अनुसार कर्म____ जुआ खेलना, मांस खाना, शराब पीना, वर्गणाएँ आत्मा की ओर चुम्बक के प्रति लोहे वेश्यागमन, शिकार खेलना, चोरी करना, परस्त्री ___ की भांति प्राकृष्ट होती है। इसे 'कर्म-आस्रव' सेवन करना-ये सात व्यसन महादुःखकारक हैं कहते हैं । कर्मों का आत्मा में घुलमिल कर उसे अतएव इनसे बचना चाहिए। आच्छादित कर लेना ही 'कर्म-बंध' कहलाता है। उक्त सर्वोपकारी नियमों के अतिरिक्त भगवान जब इच्छाओं का निरोध कर आत्मा अपने स्वभाव महावीर ने 3 प्रमुख अद्वितीय सिद्धांतों का उपदेश में रमण करने को उन्मुख होता है तो नये कर्मों दिया जो जैनधर्म की प्रमुख तथा अपूर्व विशेषताएँ का पाना रुक जाता है इसे 'संवर' कहते हैं । जिस हैं। कर्म सिद्धांत, अपरिग्रह तथा स्याद्वाद का जैसा प्रकार सुनार सोने को तपा कर सोने में मिली वैज्ञानिक तथा सूक्ष्म विवेचन महावीर ने किया हुई अन्य धातुओं को सोने से अलग कर देता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है : -- ही प्रकार विशेष तप तथा नियमादि के पालन से पुराने बंचे हुए कर्म भी क्रमशः प्रात्मा से छूटने (1) कर्म सिद्धांत-कर्म के अनुसार फल लगते हैं; इसे 'कर्म निर्जरा' कहते है। अन्त में को तो बहुत से मतावलम्बी स्वीकार करते हैं, प्रात्मा के अपने पूर्ण निर्मल स्वरूप को प्राप्त कर परन्तु कोई कर्म के अनुसार ईश्वर द्वारा फल देना समस्त प्रकार के कर्मों से छूट सांसारिक आवागमन मानते हैं, कोई भाग्य से । जैन धर्म में कर्म फल के चक्र से मुक्त हो, लोक के अंत में सदैव के लिए को वैज्ञानिक रूप दिया गया। यह जगत् अनादि अवस्थित हो जाने को 'मोक्ष' कहते हैं। प्रात्मा अनन्त है। इसे किसी ने बनाया नहीं है। प्रत्येक के साथ कर्मों का प्रास्रव, बंध, संवर और निर्जरा सांसारिक प्रात्मा अनादिकाल से कर्म बन्धन में (Automatic) रूप से निरंतर चलती रहती है। हए। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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