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________________ कर खरीदी । अब उसके रखरखाव, बिगड़ने, चोरी है। इष्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग में हम दुःख जाने, खबर होने आदि की अनेक चिताएं भी उसके तथा इनकी विपरीत अवस्थाओं में सुख मान लेते साथ ही मोल ले ली । दूसरों की ईर्ष्या के पात्र भी हैं । अर्थात् परिस्थितियों की अनुकूलता-प्रतिकूलता हुए। ऐसी परिस्थिति में वास्तविक सुख कहां? के झूले में झूलते हुए हम दुर्लभ मानव जीवन को भगवान महावीर ने इसी कारण समस्त मानवता व्यर्थ ही गवा देते हैं। के सुख के लिए 'अपरिग्रहवाद' का उपदेश दिया 3. स्याद्वाद:--अपनी बात को सर्वोपरि रखने जिसकी प्रारंभिक सीढ़ी 'परिग्रहपरिमाण व्रत' है। ती ह। तथा हठपूर्वक अपनी ही बात को सत्य सिद्ध करने इसके अनुसार मानव को अपनी आवश्यकताओं की की भावना संसार की अशांति के कारणों में प्रमुख एक सीमा निर्धारित कर उसमें पूर्ण संतुष्ट रहना है। बहुत से व्यक्ति अपने ही दृष्टि-बिन्द को ठीक चाहिए । वास्तव में अपरिग्रह का चरम पारणात और दूसरे की बात को पूर्णतया असत्य कह कर ही दिगम्बरत्व है जहां लंगोटी तक से ममत्व नहीं अशांति उत्पन्न करते हैं। भगवान महावीर ने रह जाता। परन्तु सांसारिक अधिकांश मानवों को विवेकशील मानव को एक दूसरे के दृष्टिकोण को उस मनःस्थिति के वास्तविक पूर्ण सुख को प्राप्त सहिष्णुतापूर्वक समझने का उपदेश दिया । प्रत्येक करने के लिए 'परिग्रहपरिमाण व्रत' के द्वारा व्यक्ति के कथन में कुछ न कुछ सत्यांश किसी अपनी आवश्यकतयों को क्रमशः घटाने का अभ्यास दृष्टिकोण से हो सकता है। प्रत्येक पदार्थ में अनेक करना चाहिए । अपनी भोगोपभोग की वस्तुओं की गुण हैं। अल्पज्ञानी मानव अपनी सीमित शक्ति संख्या तथा सीमा बांध कर ही हम अपने इन्द्रिय के अनुसार एक दृष्टि से एक ही गुण को देख पाता विषयों एवं कषायों पर नियंत्रण कर सकते हैं। __है। उदाहरणार्थ, चार जन्मांध मनुष्यों ने स्पर्श यह स्वेच्छया परिमाण परिणति ही अपरिग्रहवाद । के द्वारा हाथी को जानने की चेष्टा की तो प्रत्येक है। यह भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट समाज को हाथी भिन्न-भिन्न आकार का प्रतीत हुआ। वाद का उपाय है । आज समाजवाद के द्वारा इसी जिसका हाथ पेट पर पड़े उसे हाथी दीवार के की चेष्टा की जा रही है परन्तु बलात् । जो काम समान, जिसके हाथ कान पाया उसे सूप की भांति, अंतरंग इच्छा से किया जाता है वही वास्तविक जिसने पूछ पकड़ी उसे रस्सी समान तथा जिसकी सुखानुभूति का कारण बन सकता है । बरबस पकड में पैर माया उसे हाथी खम्भे के समान किसी बाह्य शक्ति के द्वारा बलपूर्वक लादा हुआ प्रतीत हया और वे आपस में झगड़ने लगे। उन नियंत्रण सुखानुभूति नहीं करा सकता। इस कारण सभी की बातों में कछ न कुछ सत्यांश तो था ही। प्रत्येक व्यक्ति को स्वतः ही अपनी इच्छाओं तथा तब धैर्य से समझा देने से कि बात सभी की ठीक आवश्यकताओं को सीमित करते हुए वास्तविक सुख है पर दृष्टिभेद के कारण ही पूर्ण सत्य की उपलब्धि शांति का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। नहीं हो रही है, अशांति मिट गई। इसी प्रकार सम्बन्ध भेद से एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, मामा, __ सुख तो अंतरंग में है; बाह्य पदार्थों में सुख चाचा आदि होता है। इसमें बुद्धिमान् के लिए कहां? बाह्य पदार्थों में सुख खोजना बालू में से ___ अशांति उत्पन्न करने का क्या कारण हो सकता तेल प्राप्ति की प्राशा के समान निरर्थक है। है। वास्तव में एक दृष्टि से जाना हा ज्ञान झूठा हमारी असीम भोगेच्छा हमें तृप्ति प्रदान करने के नहीं है, केवल अधूरा है। सब दृष्टियों से प्राप्त स्थान पर सुख की मृग-मरीचिका में भटकाया करती ज्ञान का समन्वय ही पूर्ण ज्ञान कहा जाता है। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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