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________________ उपरोक्त तीनों प्रकार के उपदेशों की संक्षिप्त रूपरेखा निम्न है 1. मनन तथा चितन हेतु - इनके अन्तर्गत विशेष रूप से 12 अनुप्रे क्षात्रों तथवा भावनाओं का निरन्तर चिंतन करने की आवश्यकता बताई : ( 1 ) श्रनित्य भावना – इन्द्रियों के विषय, धन वैभव, जीवन आदि जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर हैं । ( 2 ) अशरण भावना - इस संसार में कष्ट तथा मृत्यु बचाने में कोई सहायक नहीं हो सकता । (3) संसार भावना - संसार के कष्टों तथा नश्वरता का विचार करना । (4) अन्यत्व भावना-- शरीर से मैं भिन्न हूं जैसे तिल से उसकी भूसी अलग होती है । ( 5 ) एकत्व भावना - संसार में अनादि काल से मैं अकेला हूं । वास्तव में कोई अपना पराया नहीं है । धर्म ही केवल सहायक है । खाल ( 6 ) अशुचि भावना - यह शरीर मढ़ी होने के कारण ऊपर से ही कुछ अच्छा लगता है । अन्दर अत्यन्त घृणित तथा अपवित्र है । (7) आलव भावना कर्मों के अनुसार निरन्तर कर्म वर्गरणाएं इस आत्मा के साथ चिपक कर संसार भ्रमण में कारण होती हैं । ( 8 ) संवर भावना - शुद्ध भावों के द्वारा उन कर्म वर्गणाओं का थाना रोका जा सकता है। ( 9 ) निर्जरा भावना - क्रमशः शुद्ध भावों की पूर्णता होने पर पूर्वबद्ध कर्मों का अभाव होकर मोक्ष प्राप्ति हो सकती है । 1-6 Jain Education International ( 10 ) लोक भावना - लोक के आकार आदि का विचार करना । जिसमें यह जीव अनादि काल से भ्रमण कर रहा है । (11) बोधि दुर्लभ भावना - वास्तविक ज्ञान प्राप्ति बहुत दुर्लभ है। ज्ञान प्राप्त होने पर विषय भोगों में व्यर्थ समय नहीं खोना चाहिए । (12) धर्मस्वाख्यात भावना प्रर्हन्त भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म मार्ग पर चलना मोक्ष प्राप्ति का साधन है । इन बारह भावनाओं के अतिरिक्त पंच पापों से बचने तथा पुण्य कार्यों में प्रवृत्ति लगाने के लिए भी अनेक प्रकार की भावनाओं के मननचितन का उपदेश दिया । इनके द्वारा मनुष्य के मन में आगे वरित दश-धर्म तथा परिषह जय आदि के लिए भूमि तैयार हो जाती है । 2. अभ्यास करने के लिए :- मनुष्य छोटेछोटे कष्टों तथा प्रतिकूलताओं में व्याकुल हो जाता है । ऐसी प्रतिकूलतायें जीवन में अनिवार्य रूप से आया ही करती हैं। इन्हें सहन करने का अभ्यास हो जाने पर कष्ट नहीं होता । उन्होंने आत्म-संयम, अप्रमाद ( जागरूकता) और कषायों ( क्रोध, मान, माया, लोभ) को जीतने तथा समत्व का अभ्यास करने का उपदेश दिया। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी मच्छरादि के काटने की पीड़ा आदि 22 प्रकार की परिषहों (कष्टों) को सहन करने का उपदेश दिया। इन परिषहों के सहने का क्रमशः प्रभ्यास होने पर मन की सुख-शांति निरंतर बढ़ती जाती है । उक्त चारों कषाय ( आत्मा को कसने वाली या भात्मा के लिए कषा कोड़े की चोट के समान पीड़ादायक ) क्रोध, मान, माया, लोभ को रोकने का यथासंभव प्रयास करना चाहिए। दश धर्म :उत्तम क्षमा, मार्दव (मृदुता ), आर्जव ( सरलता ), शौच ( लोभ न होना), सत्य, संयम तप, त्याग, महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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