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________________ ही लौकिक जीबन में अलौकिकता के दर्शन होने निरंतर उनका संचयन कर सहेजता है तथा होने लगते हैं । भौतिक सामग्री की नश्वरता का सम्यक् वाले घोर कष्टों को भोगता हुना पाकुल-व्याकुल बोध होते ही उससे सुख प्राप्ति का विश्वास होकर भी उनमें अानन्द मानता है। परिग्रह ही समाप्त हो जाता है । अत: उस ओर की रुचि का पाप व समस्त अनर्थों की जड़ है । भगवान् महावीर भी अत हो जाना स्वाभाविक है। जो व्यक्ति के तत्वदर्शन में पर-ग्रहण-वृत्ति को ही अतिक्र र आत्मावगाहन कर सम्यग्दर्शन की झलक पा चुका हिंसा माना गया है। यह आत्मस्वभाव का नाश है, वह जगमगाती रत्नराशि छोड़ कंकर-पत्थर में करती हुई आत्मस्वातंत्र्य को खो स्वच्छंद रहती है, कदापि रमण नहीं करता। तब लोक-जीवन में जिससे हिंसा का क्रम अटूट बना रहता है। जो जागता है त्याग एवं अन्य के प्रति तटस्थता, अहिंसा के मर्म से अवगत नहीं हुआ. वह 'कालिक रागद्वेष से ऊपर उठकर वीतरागवृत्ति साधक के जीवंत प्रात्मा को क्षणजीवी मानकर सतत् क्लेश गार्हस्थ्य जीवन में उभरते हैं प्रणवत अर्थात् प्रांशिक का अनुभव करता है । तत्व को जाने बिना अहिंसा विरतिरूप आचरण । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, आत्मसात् नहीं हो सकती। तत्वदर्शन का हार्द परिग्रह, पांचों पापों का प्रांशिक परिहार । साधना है अपरिग्रहवाद । इसके बिना जैन दर्शन की भूमिका यहीं से प्रारम्भ होती है । साधक में मूल्यहीन है। अन्य व्यक्तियों से भिन्न असाधारण विशेषता प्रा समस्याओं के चौराहे जाती है। वह है उसकी भौतिक सामग्री के प्रति अनासक्ति । अन्य व्यक्ति सामग्री का त्याग तो वर्तमान में भारत ही नहीं समस्त विश्व कर देते हैं. उनके जीवन में प्रासक्ति का प्रावेग सामाजिक, राजनैतिक एवं सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक अव्यवस्था से भी शांत हो जाता है, परन्तु प्रासक्ति यथावत बनी त्रस्त है । ये ऐसी विचित्र समस्यायें हैं, जिन्हें रहती है। सामग्री सुखदेह है, इस विश्वास के सुलझाने को किया गया प्रयास उलझन में परिवर्तित कारण व्यक्ति उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता और हो जाता है । कंचन व सत्ता की होड़ में मानवता त्याग का फल जब उसे विविध सामग्रियों के रूप व नैतिकता के मूल्य गिरते जा रहे हैं। मानव में प्राप्त होता है तो यह उस प्रवाह में बहकर पनः उदिवग्न, दिग्भ्रम हो समस्याओं के चौराहे पर खडा भटक जाता है। क्योंकि उसके त्याग का प्राधार मुक्ति की खोज में है। उसे पथ-प्रदर्शक की नितांत मात्मा की शाश्वत भूमि नहीं, नश्वरता का काल्प आवश्यकता है । भगवान् महावीर के द्वारा निक अाकाश है। नश्वर-साधक प्राप्ति पर भी प्रतिपादित तत्वदर्शन एवं प्राचरित अहिंसा निश्चित उनसे अपेक्षा नहीं रखता। उसका प्रात्मविश्वास ही पथ-प्रदर्शक के चिरंतन प्रभाव की पूर्ति करती सुदृढ़ हो चुका है। है। उनके सिद्धान्तों का निष्पक्ष हो गहराई से अध्ययन किया जाय तो वे सुनिश्चित उचित दिशा सत्वदर्शन अनिवार्य को इंगित करते हैं। अपरिग्रही ही अहिंसक होता है अन्य नहीं। चारित्र निर्माण की दिशा में अग्रसर हों हिंसा का मूल जनक राग है। राग अपनी आत्मा का परिहार करता हुआ सृष्टि के समस्त चेतन- विश्व में चारित्रहीनता बुरी तरह व्याप्त हो अचेतन पदार्थों के प्रति अपनत्व रखता है, उनसे गई है। नैतिकता की दुहाई देते हुये नेतागण स्वयं सुख की कामना करता है । अतएव प्रासक्त हो चारित्रनिष्ठ नहीं हैं। उनके स्वतः के जीवन में 1-74 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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